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________________ 16 प्रक्रिया से मुख्य - -गौण वाद का दृष्टानत देते हुए लिखा है 'एकेनाकर्षयन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी ॥' पुरुषार्थसिद्धयुपाय, 225 उपनिषदों की विरोधाभासी भाषा में तात्त्विक विरोध नहीं, अपितु अनेकान्तवाद की स्थिति का रूप ही दृष्टिगोचर होता है। अन्य दार्शनिक मतों में भी कही-कहीं अनेकान्तवाद की स्वीकृति सी तो प्रतीत होती है, किन्तु स्पष्टतया उन्होंने इस सिद्धान्त की विवेचना नहीं की है। वस्तुतः अनेकान्तवाद में एक ऐसा बहु-आयामी दृष्टिकोण निहित है, जो परमार्थ एवं व्यवहार की यथार्थ संगति एवं भिन्नता का प्ररूपण करता है। इसमें किसी व्यक्ति विशेष को नहीं, अपितु युक्तिपूर्ण सत्य को आदृत किया गया है। हरिभद्रसूरि तो लोकतत्त्वनिर्णय में स्पष्ट घोषणा करते हैं'पक्षपातो न मे वीरे न द्वेषः कपिलादिषु । - अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ ' श्लोक ३८ अर्थात् मैं न महावीर के दर्शन का पक्षधर हूँ और न कपिल आदि में विद्वेषी हूँ जिसके युक्ति पूर्ण वचन हैं वही मेरे लिए ग्राह्य है। इस प्रकार संक्षेप में अनेकान्त की दार्शनिक पृष्ठभूमि है। ******
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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