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________________ अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 द्वयात्मकं वाचकमप्यवश्यम्। अतोऽन्यथा वाचकवाच्यक्लू प्तावकानां प्रतिभाप्रमादः॥' पद्य १४ अर्थात् समस्त पदार्थ अनेक होकर भी एक हैं और एक होकर भी अनेक हैं। इसी प्रकार उन पदार्थों को कहने वाले शब्द भी एक होकर भी अनेक हैं और अनेक होकर भी एक हैं। इस तथ्य को हरिभद्रसूरि ने शास्त्रवार्तासमुच्चय में बाल्यावस्था, युवावस्था एवं वृद्धावस्था के दृष्टान्त द्वारा समझाया है 'लज्जते बालचरितैर्बाल एव न एव चापि तत्। युवा न लज्जते चान्यः तैरायत्यैव चेष्टते॥ युवैव न च वृद्धोऽपि नान्यार्थचेष्टनं च तत्। अन्वयादिमयं वस्तु तदभावोऽन्यथा भवेत्॥' पद्य ५०५,५०६ वस्त की नित्यानित्यात्मकता की विवेचना करते हुए समन्तभद्राचार्य ने लिखा है 'भावेषु नित्येषु विकारहानेर्न कारकव्यापृतकार्ययुक्तिः। न बन्धभोगौ न च तद्विमोक्षः समन्तदोषं मतमन्यदीयम्॥' - युक्त्यनुशासन पद्य 8 सत्तात्मक पदार्थों को नित्य मानने पर विकार की हानि होती है, तब कर्ता, कर्म आदि कारकों का व्यापार नहीं बन सकेगा। कारक के अभाव में युक्ति घटित नहीं होती है। युक्ति के अभाव में बन्ध और भोग दोनों नहीं बन सकते हैं और न उनका मोक्ष हो सकता है। वस्तु की उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकता को आप्तमीमांसा में आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने इस प्रकार स्पष्ट किया है 'घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्। शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम्॥' पद्य ६९ ‘पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः। अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम्॥' पद्य ६९ अनेकान्त के प्रयोग का सबसे बड़ा क्षेत्र मानव का व्यावहारिक जीवन है। आचार्य अमृतचन्द्र ने एक ग्वालिन के द्वारा दधिमथन की
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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