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________________ अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक में आचार्य विद्यानन्द अनेकान्त को दो प्रकार का मानते हैं। वे कहते हैं 14 'गुणवद्द्रव्यमित्युक्तं सहानेकान्तसिद्धये । तथा पर्यावद्द्रव्यं क्रमानेकान्तसिद्धये ॥ ' 5.39.2 अर्थात् सहानेकान्त की सिद्धि के लिए द्रव्य को गुणवत् और क्रमानेकान्त की सिद्धि के लिए द्रव्य को पर्यायवत् कहा गया है। अभिप्राय यह है कि एक साथ रहने वाले गुणों के समुदाय का नाम सहानेकान्त है और क्रम से होने वाली पर्यायों के समुदाय का नाम क्रमानेकान्त है। ये दो भेद सर्वप्रथम आचार्य विद्यानंद ने ही किये हैं। पहले भेदों के रूप में सम्यक् अनेकान्त और मिथ्या अनेकांत का कथन मिलता है। सापेक्ष एकान्तों का समुच्चय सम्यक् अनेकान्त है और निरपेक्ष विविध धर्मों का समुच्चय मिथ्या अनेकान्त है । अनेकान्त के समान एकान्त भी दो प्रकार का कहा गया है- सम्यक् एकान्त और मिथ्या एकान्त। सापेक्ष एकान्त सम्यक् एकान्त है तथा निरपेक्ष एकान्त मिथ्या एकान्त है। सम्यक् एकान्त नय है और मिथ्या एकान्त नयाभास है। प्रत्येक द्रव्य सदसदात्मक, एकानेकात्मक एवं नित्यानियात्मक है। स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल एवं स्वभाव की अपेक्षा द्रव्य सत् रूप ही है किन्तु परद्रव्य, परक्षेत्र, परकाल एवं परभाव की अपेक्षा से द्रव्य असत् रूप ही है। आचार्य समन्तभद्र आप्तमीमांसा में कहते हैं 'सदेव सर्व को नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात्। असदेव विपर्यासान्न चेन्न व्यवतिष्ठते ॥' कारिका १५ पञ्चास्तिकाय में आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा है सत्ता सवपयत्था सविस्सरूवा अणतपज्जाया। 'भंगुप्पाद धुवत्ता सप्पडिवक्खा हवदि एक्का || गाथा 8 अर्थात् सत्ता सर्व पदार्थों में स्थित है, अखिल विश्वरूप है एवं अनन्तपर्याय रूप है। स्थिति, भंग एवं उत्पाद स्वरूप है तथा अपने प्रतिपक्ष असत्ता से सरहित एक है। एकानेकता को स्पष्ट करते हए स्याद्वादमंजरी में कहा गया है'अनेकमेकात्मकमेव वाच्यं
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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