________________
अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016
13
सकता है, उस भुवन के एकमात्र गुरु अनेकान्तवाद को नमस्कार हो।
तत्त्वार्थवार्तिक में आचार्य अकलंकदेव का कहना है कि यदि द्रव्यार्थिक नय का एकान्ततः आग्रह किया जाता है तो अतत् को तत् कहने से वह उन्मत्तवाक्यवत् अग्राह्य है तथा यदि पर्यायार्थिक नय का एकान्ततः आश्रय लिया जाता है तो तत् को अतत् कहने से वह भी उन्मत्तवाक्यवत् अनादरणीय होगा। अतः स्याद्वाद की अपेक्षा से वस्तु के यथार्थ स्वरूप का निर्णय कराने वाला सद्वाद ही विद्वान् के वाक्य के समान आदरणीय होता है। वस्तु को सर्वथा अवक्तव्य कहना भी असद्वाद है। क्योंकि अवक्तव्य दशा में अवक्तव्य भी कहना संभव नहीं है। मौनी यह कैसे कह सकता है कि मैं मौनी हूँ। अतः स्यात् (एक दृष्टि से) अवक्तव्य कहना ही वास्तविक सद् वाद है।
(तत्त्वार्थवार्तिक प्रथम अध्याय, पृ. 95 का सार अंश) एकान्तवादियों के मत में तो वस्तु को सर्वथा नित्य या अनित्य एवं सर्वथा शद्ध या अशद्ध मानने से तो न तो कर्मबंध बन सकता है और न मोक्ष बन सकता है। श्री समन्तभद्राचार्य स्वयंभू स्तोत्र में लिखते हैं
'बन्धश्च मोक्षश्च तयोश्च हेतू बद्धश्च मुक्तश्च फलं च मुक्तेः। स्याद्वादिनो नाथ तवैव युक्तं
नैकान्तदृष्टस्त्वमतोस्ति शास्ता॥' पद्य १४ अर्थात् हे नाथ ! बन्ध और मोक्ष तथा उन दोनों के कारणभूत बद्ध और मुक्त आत्मा का तथा मुक्ति का फल- यह सब आप स्याद्वादी के ही बन सकता है। एकान्तवादियों के मत में इसकी व्यवस्था ही संभव नहीं है। अतः आप ही यथार्थ उपदेष्टा (शास्ता) हैं।
उपाध्याय यशोविजय ने लिखा है
'वस्तुधर्मो येनेकान्तः प्रमाणनयस्नधितः।
अज्ञात्वा इषणं तस्य निजबुद्धेर्विडम्बनम्॥' १/३ अर्थात् यस्तु-धर्म अनेकान्तात्मक है, जो प्रमाण और नय से सिद्ध है। जो उसको नहीं जानकर दूषण देते हैं, वह उनकी अपनी बुद्धि की विडम्बना है।