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________________ अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 स्याद्वादमञ्जरी के अनुसार वस्तु में अनेक धर्मों की स्वीकृति का नाम अनेकान्तवाद तथा इस सिद्धान्त को कथन करने की पद्धति का नाम स्याद्वाद है। स्याद्वाद अनेकान्त दर्शन को प्रकट करने वाली भाषा का नाम किसी भी वस्तु को यथार्थ रूप में समझने के लिए अनेकान्त को समझना नितान्त आवश्यक है। पक्ष के हठाग्रह के कारण कलह बढ़ जाता है, जबकि अनेकान्त का आश्रय लेने के कारण कलह से बचाव होता है। सूत्रकृतांगासूत्र में स्पष्टतया कहा गया है ‘सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयं। जे उ तत्थ विउस्संति सांगरे ते विउज्जिया॥' सूयगडंगो १/५० अर्थात् अपने-अपने मत की प्रशंसा और पर मत की निन्दा करते हुए जो उस विषय में गर्व करते हैं, वे संसार में परिभ्रमण करते रहते हैं। महाभारत के वन पर्व में यक्ष-युधिष्ठिर संवाद में कहा गया है 'तर्कोऽप्रतिष्ठः श्रुतयो विभिन्नाः नैको मुनिर्यस्य वचः प्रमाणम्। धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायां महाजनो येन गतः स पन्थाः ॥' अर्थात् तर्क की कोई प्रतिष्ठा नहीं है, शास्त्र भी तरह-तरह के हैं। मुनि एक ही नहीं है, जिसका वचन प्रमाण हो। धर्म का रहस्य गुहा में (हृदयस्थल में) छुपा हुआ है। अतः महापुरुष जिस रास्ते से चला है, वही मार्ग है। अनेकान्त में इसी भाव को जैनाचार्यों द्वारा प्रतिष्ठित किया गया है। इसके आश्रय से दर्शन के क्षेत्र में विविध विरोधों को दूर किया जा सकता है तथा पारस्परिक समन्वय स्थापित किया जा सकता है। आचार्य सिद्धसेन ने सन्मतिसूत्र में स्पष्टतया उदघोषित किया है'जेण विणा लोगस्स वि विवहारो सव्वहा ण णिव्वडइ। तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स॥' ३/६९ अर्थात् जिसके बिना लोक का व्यवहार भी सर्वथा नहीं चल
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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