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अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016 परीषहों को सहन करने में शूरवीर है, उद्यमशील है तथा संसार के भय से भीत है उसी के सुखमय प्रत्याख्यान (निश्चय) होता है। (नि.गा.105)
इस प्रकार जो निरन्तर जीव और कर्म के भेद का अभ्यास करता है वह संयत साधु नियम से प्रत्याख्यान धारण करने को समर्थ है। (नि. गा.106)
समयसार में तो आचार्य कहते हैं कि ज्ञान ही प्रत्याख्यान है
सव्वे भावा जम्हा पच्चक्खाई परेत्ति णादणं। तम्हा पच्चक्खाणं णाणं णियमा मुणेयव्वं॥ (समय.34)
अर्थात् ज्ञानी जीव अपने सिवाय समस्त भावों को पर है ऐसा जानकर छोड़ता है इसलिए ज्ञान को ही नियम से प्रत्याख्यान जानना चाहिए।
इसको समझाने के लिए आचार्य एक दृष्टान्त देते हैं- 'जिस प्रकार कोई पुरुष 'यह परद्रव्य है' ऐसा जानकर उसे छोड़ देता है उसी प्रकार ज्ञानी जीव समस्त परभावों को यह पर हैं ऐसा जानकर छोड़ देता है। (समय.गाथा-35)
आगे सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार में आचार्य कहते हैं कि जिस भाव के होने पर जो शुभाशुभ कर्म भविष्य में बँधने वाले हैं उनसे जो ज्ञानी निवृत्त होता है वह प्रत्याख्यान है। (समय.गाथा 384) (६) कायोत्सर्ग :
कायोत्सर्ग की चर्चा नियमसार में 'शुद्धनिश्चय प्रायश्चिताधिकार' में की गयी है। वहाँ आचार्य कहते हैं जो शरीर आदि पर द्रव्य में स्थिरभाव को छोड़कर निर्विकल्प रूप से आत्मा का ध्यान करता है उसके कायोत्सर्ग होता है। (गाथा 121) कायोत्सर्ग का विशेष निरूपण इसी की संस्कृत टीका में आचार्य पद्मप्रभमलधारी देव ने किया है। मूलाचार ने कायोत्सर्ग के लिए विसर्ग तथा व्युत्सर्ग शब्दों का भी प्रयोग किया है।
देवस्सियणियमादिसु जहुत्तमाणेण उत्तकालम्हि। जिणगुणचिंतणजुत्तो, काउसग्गो तणुविसग्गो॥ मूलाचार 1/28
दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक आदि अर्हत्प्रणीत कालप्रमाण के अनुसार अर्थात् जिस जिस काल में जितना