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________________ 80 अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016 तरह आगम में आलोचना का लक्षण चार प्रकार का कहा गया है। आलोचन जो जीव अपने परिणाम को समभाव में स्थापित कर अपने आत्मा को देखता है, उसके वीतराग स्वभाव का चिन्तन करता है वह आलोचन है। (नियमसार गाथा 108) आलुञ्छन कर्म रूप वृक्ष का मूलच्छेद करने में समर्थ, स्वाधीन, समभाव रूप जो अपना परिणाम है वह आलुञ्छन है। (नियमसार गाथा 110) अविकृतिकरण जो मध्यस्थ भावना में कर्म से भिन्न तथा निर्मलगुणों के निवास स्वरूप आत्मा की भावना करता है उसकी वह भावना अविकृतिकरण है। (नि.गाथा 111) भावशुद्धि भव्य जीवों का मद, मान और लोभ से रहित जो भाव है वह भावशुद्धि है। (नियमसार गाथा 112) समयसार के सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार में आचार्य कहते हैं कि अनेक विस्तार विशेष को लिए जो शुभाशुभ कर्म वर्तमान में उदय को प्राप्त है, दोष स्वरूप उस कर्म को जो ज्ञानी अनुभवता है- उससे स्वामित्वभाव को छोड़ता है वह निश्चय से आलोचना है जं सुहमसुहमुदिण्णं संपडि य अणेयवित्थरविसेसं। तं दोसं जो चेयइ सो खलु आलोयणं चेया॥ (समय.गा.385) (५) प्रत्याख्यान : प्रत्याख्यान का वर्णन नियमसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने 'निश्चय प्रत्याख्यानाधिकार' में किया है। यहाँ पुनः वे वचन जाल से ऊपर उठने की बात कह रहे हैं। वे कहते हैं कि 'जो समस्त वचन काल को छोड़कर तथा आगामी शुभ अशुभ का निवारण कर आत्मा का ध्यान करता है उसके प्रत्याख्यान होता है' मोत्तूण वयणजप्पमणागयसुहवारणं किच्चा। अप्पाणं जो झायदि पच्चक्खाणं हवे तस्स॥ (नि.95) फिर वे प्रत्याख्यान की आन्तरिक प्रक्रिया क्या है? आत्मा का ध्यान किस प्रकार किया जाता है? उसका वर्णन करते हैं। फिर अन्त में निश्चय प्रत्याख्यान का अधिकारी कौन है? इसका व्याख्यान करते हुए कहते हैं कि 'जो निष्कषाय है, इन्द्रियों का दमन करने वाला है, समस्त
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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