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________________ अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016 (नि.89) (7) जो मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्र निरवशेष रूप से छोड़कर रत्नत्रय भाता है। (नियम.90) 79 आगे आचार्य कहते हैं कि ध्यान में लीन साधु सर्वदोषों का त्याग करते हैं इसलिए ध्यान ही वास्तव में सर्व अतिचार का प्रतिक्रमण है। (नि. गाथा - 93 ) समयसार के अनुसार पूर्व काल में किये हुए शुभाशुभ अनेक विस्तार विशेष को लिये हुए जो ज्ञानावरणादि कर्म उनसे जो जीव अपने आत्मा को छुड़ाता है वह प्रतिक्रमण है। (समयसार गा. 383) सम्भवतः आचार्य यह समझाना चाह रहे हैं कि मात्र वचनों से प्रतिक्रमणसूत्र का पाठ पढ़ने से कुछ नहीं होगा, उसकी भावना भी भानी चाहिए तभी वास्तविक प्रतिक्रमण होता है। वे स्पष्ट कहते हैं पडिकमणणामधेये सुत्ते जह वण्णिदं पडिक्कमणं । तह णच्चा जो भावइ तस्स तदा होदि पडिक्कमणं ॥ (नि.गा.94) अर्थात् प्रतिक्रमण नामक सूत्र में जिस प्रकार प्रतिक्रमण कहा गया है तदनुसार जानकर जो भाता है उसे तब प्रतिक्रमण होता है। (५) आलोचना : आचार्य वट्टकेर ने प्रतिक्रमण के अन्तर्गत ही आलोचना भी ली है | नियमसार में 'परम आलोचना अधिकार' के अन्तर्गत आलोचना का वास्तविक स्वरूप समझाया है। आचार्य कहते हैं णोकम्म कम्म रहियं विहावगुणज्जएहिं वदिरित्तं । अप्पाणं जो झायदि समणस्सालोयणं होदि ॥ ( नि.गा. 107) अर्थात् जो नोकर्म और कर्म से रहित तथा विभाव गुण पर्यायों से भिन्न आत्मा का ध्यान करता है उस साधु के आलोचना होती है। आलोचना का चार प्रकार का लक्षण बतलाते हुए कहते हैं आलोयणमालुंछणवियडीकरणं च भावसुद्धी य चउविहमिह परिकहियं आलोयणलक्खणं समए ॥ (नि.गा.108) अर्थात् आलोचन, आलुञ्छन, अविकृतिकरण और भावशुद्धि इस
SR No.538069
Book TitleAnekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2016
Total Pages288
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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