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अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016 इतनी बड़ी बात कहने के तुरन्त बाद आचार्य यह भी कहते हैं कि जो अरहन्त, सिद्ध, जिनप्रतिमा और जिनशास्त्रों का भक्त होता हुआ उत्कृष्ट संयम के साथ तपश्चरण करता है वह नियम से देवगति ही प्राप्त करता है। (पञ्चा.गा. 171)
किन्तु जब मोक्ष का प्रश्न आता है तब वे यही कहते हैं कि जो पुरुष निष्परिग्रही और निर्मल होकर परमात्म स्वरूप में भक्ति करता है वह मोक्ष को प्राप्त होता है। (पञ्चा.गा. 169)
समयसार में भी स्तवन का प्रसंग है जो शुद्धदृष्टि से व्याख्यायित है। वहाँ आचार्य स्पष्ट कहते हैं कि जिस प्रकार नगर का वर्णन करने से राजा का वर्णन किया हुआ नहीं होता उसी प्रकार शरीर के गुणों का स्तवन होने पर केवली के गुण स्तुत नहीं होते (समय.गा.30)
शरीर के गण का स्तवन निश्चय नय से ठीक नहीं है. क्योंकि शरीर के गुण केवली के गुण नहीं हैं। जो केवली के गुणों की स्तुति करता है वही यथार्थ में केवली की स्तुति करता है।
तं णिच्छये ण जुंजदि ण सरीरगुणा हि होंति केवलिणो। केवलिगुणे थुणदि जो सो तच्चं केवलिं थुणदि॥ (समय.गा.29)
इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने द्वितीय आवश्यक का वास्तविक स्वरूप व्याख्यायित किया है। (३) वंदन :
इस तृतीय आवश्यक को लेकर आचार्य कुन्दकुन्द काफी गम्भीर हैं। आचार्य वट्टकेर ने मूलाचार में जहाँ एक तरफ वन्दना के भेद प्रभेद प्रक्रिया आदि का व्यवस्थित बाह्य रूप दिखाया है, वहीं आचार्य कुन्दकुन्द ने वंदना किसे करें और क्यों करें, किसे ने करें? और क्यों न करें? इसका विवेचन अष्टपाहुड में विभिन्न गाथाओं के माध्यम से किया है। मूलाचार में भी पार्श्वस्थ मुनियों की वन्दना का निषेध है (मू.गा. 7/93) और कहा है कि
'समणं वंदेज्ज मेधावी संजदं सुसमाहिदं।
पंचमहव्वदकलिदं असंजमदुगंछयं धीरं॥' अर्थात् असंयम से रहित, महाव्रतों से सहित, धीर तथा एकाग्रचित