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अनेकान्त 69/2 अप्रैल-जून, 2016
'सम्मत्तणाणचरणे जो भत्तिं कुणइ सावगो समणो ।
तस्स दुणिव्वुदिभत्ती होदि त्ति जिणेहि पण्णत्तं ॥ ( नियम. १३४ ) इस प्रकार परम भक्ति की अपेक्षा 'निर्वृत्ति भक्ति' अर्थात् निर्वाण भक्ति को सर्वोत्तम मानते हैं। तीर्थंकरों की भक्ति को वे व्यवहार से निर्वाणभक्ति कहते हैं
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'मोक्खंगयपुरिसाणं गुणभेदं जाणिऊण तेसिंपि । जो कुणदि परमभत्तिं ववहारणएण परिकहियं॥'
जो जीव मोक्षगत पुरुषों का गुणभेद जानकर उनकी भी परमभक्ति करता है, उस जीव को व्यवहार नय से निर्वाणभक्ति कही है।
इसके साथ-साथ यहाँ पर आचार्य योगभक्ति को भी अति महत्त्वपूर्ण मानते हैं। चतुर्विंशतिस्तव में जो वचन रूप क्रिया है वह तो व्यवहार से है, किन्तु निश्चय से 'ऋषभादि महावीर पर्यन्त जो इन परमयोगियों ने जिस योग की उत्तम भक्ति करके निर्वृत्तिसुख को प्राप्त किया उस योग की उत्तम भक्ति को तू धारण कर ऐसा अभिप्राय आचार्य यहाँ व्यक्त करते हैं
'उसहादिजिणवरिंदा एवं काऊण जोगवरभत्तिं ।
णिव्वदिसुहभावण्णा तम्हा धरु जोगवरभत्तिं ॥ ' ( निय.गा. 140 ) विपरीत अभिनिवेशों का जो त्याग करके जैन कथित तत्त्वों में आत्मा को लगाता है, उसका निजभाव वह योग है। (नि.गा. 139) जो साधु रागादि के परिहार में आत्मा को लगाता है, सर्व विकल्पों के अभाव में आत्मा को लगाता है वह ही योगभक्ति वाला है। (नि.गा. 137-138) पञ्चास्तिकाय में आचार्य कुन्दकुन्द ने व्यवहार भक्ति को मोक्ष का साक्षात् कारण नहीं माना है। वे कहते हैं
सपयत्थं तित्थयरं अभिगदबुद्धिस्स सुत्तरोइस्स |
दूरतरं णिव्वाणं संजमतवसंपओत्तस्स ॥ ( पञ्चा. 170) अर्थात् जीव, अजीव आदि नवपदार्थों तथा तीर्थंकर आदि पूज्य पुरुषों में जिसकी भक्ति रूप बुद्धि लग रही है उसको मोक्ष बहुत दूर है, भले ही वह आगम का श्रद्धानी और संयम तथा तपश्चरण से युक्त क्यों न हो।