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________________ 87 अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 मनोविकार का द्योतक है। उस आकुलता के कारण मनुष्य का मन विकार युक्त बना रहता है, जिससे उसके परिणामों-भावों की निर्मलता समाप्त हो जाती है और वे सुपरिणाम, दुष्परिणामों में परिवर्तित हो जाते हैं। दुष्परिणामों के कारण मनुष्य की आत्मा अशुभ कर्म के संस्कारों से परिवेष्टित हो जाती है और अशुभ कार्यों का फल भोगने हेतु उसे पुनः संसार में जन्म-मरण को धारण करते हुए संसरण करना पड़ता है। इसके विपरीत स्वस्थ शरीर वाला योगी या साधु आकुलता के अभाव में निराकुल होकर अपनी साधना में तत्पर रहता है और अंततः शाश्वत मोक्ष सुख का अनुभव कर लेता है। इस प्रकार रोगाक्रान्त शरीर जहाँ कर्मबन्धन एवं संसार भ्रमण का कारण है वहाँ आरोग्य के द्वारा मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है। शरीर में रोग की उत्पत्ति हो जाने पर साधना या तपश्चर्या में किस प्रकार विघ्न या व्यवधान उत्पन्न होता है इसे स्वामी समन्तभद्र के जीवन से भलीभाँति जाना जा सकता है। मुनिचर्या का निर्दोष पालन करते हुए भी पूर्व जन्म कृत अशुभ कर्मों के संस्कारवश जब वे भस्मक व्याधि से पीड़ित हो गए तो वे यद्यपि कभी अपनी चर्या से चलायमान या विचलित नहीं हुए, तथापि इससे वे अपनी मुनिचर्या में किंचित् व्यवधान सा अनुभव करने लगे थे। क्योंकि जठराग्नि की तीव्रता उनके द्वारा गृहीत भोजन का तिरस्कार करती हुए शरीर को अधिक पीड़ित करने लगी थी। मुनिचर्या के अधीन उनके द्वारा गृहीत भोजन वैसे भी समिति और नीरस होता था जो उनकी तीव्र जठाराग्नि के लिए अपर्याप्त था। अतः उससे जठराग्नि की तृप्ति होना सम्भव नहीं था। उसके लिए तो यथेष्ठ परिमाण में गुरु-स्निग्ध-शीतल और मधुर रस वाला अन्न पान मिलना आवश्यक होता है, अन्यथा वह जठराग्नि शरीरगत रस-रक्त-मांसादि धातुओं को ही भस्मसात् करने लगती है। इससे शरीर में दौर्बल्य होने के साथ-साथ तृषा, दाह, मुर्छा आदि अन्य अनेक विकार या व्याधियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। स्वामी समन्तभद्र ने जब अनुभव किया कि व्याधि की तीव्रता के कारण शरीर की दुर्बलता निरंतर बढ़ती जा रही है और इससे मुनिचर्या में
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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