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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 वाले शारीरिक आरोग्य के निष्पादन में पूर्णतः सहायक होता है। अतः अप्रत्यक्षतः वह मोक्ष साधन का कारण भी है।
जैनधर्म में मोक्ष को विशेष स्थान दिया गया है और मोक्ष की प्राप्ति मनुष्य का चरम लक्ष्य बतलाया गया है। मोक्ष प्राप्ति के लिए साधना या तप का विशेष महत्व है, क्योंकि उससे ही कर्मों का क्षय होता है और आत्मा को कर्मों के बन्धन से मुक्ति प्राप्त होती है। आयु कर्म शेष रहने तक आत्मा को भौतिक शरीर में ही निवास करना पड़ता है, अतः तब तक उसके स्वास्थ्य पर समुचित ध्यान देना आवश्यक है। इसके लिए साधना के क्षेत्र में अवतरित मुनि को भी आरोग्य सम्बन्धी समस्त विषय का ज्ञान होना आवश्यक है। जो शुभ परिणामी मुनि या श्रावक ऐसा नहीं करता है वह विभिन्न रोगों से पीड़ित होकर तज्जनित कष्टों और उनके दुष्परिणामों से अशुभ कर्म के बंध का भागी बनता है। अतः श्री उग्रादित्याचार्य ने आयुर्वेदशास्त्र का ज्ञान प्राप्त करने का निर्देश निम्न प्रकार से दिया हैआरोग्यशास्त्रमधिगम्य मुनिर्विपश्चित् स्वास्थ्यं स साधयति सिद्धसुखैकहेतुम्। अन्यस्स्वदोषकृतरोगनिपीडितांगो बध्नाति कर्म निजदुष्परिणाम भेदात्॥
अर्थात् विद्वान् मुनि आरोग्य शास्त्र (आयुर्वेद शास्त्र) को अच्छी तरह जानकर (उसी प्रकार आहार-विहार रखते हुए और नियमों एवं सवृत्त का पालन करते हुए) सिद्ध सुख के एकमात्र कारण भूत स्वास्थ्य का साधन (रक्षा) कर लेता है। इसके विपरीत स्वदोष अर्थात् अपने अहित आहार-विहार से जनित रोग से पीड़ित शरीर वाला होकर वह अपने दुष्परिणामों (दुर्भावों) के कारण विभिन्न कर्मों के बंध को बांध लेता है।
यहाँ स्पष्ट किया गया है कि आरोग्य शास्त्र (आयुर्वेद शास्त्र) का अध्ययन एवं ज्ञान किस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से मोक्ष सुख का कारण है? जिसके शरीर में रोग व्याप्त रहता है या जो किसी बाह्य या आभ्यन्तरिक विकार से पीड़ित है वह अपने शरीर की रोगजन्य वेदना के कारण व्याकुल बना रहता है। आकुलता स्वयं एक अशुभ परिणाम है जो