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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015
छोड़नी अथवा कम करनी चाहिए।
अवबुध्य हिंस्यहिंसकहिंसाहिंसाफलानि तत्त्वेन। नित्यमवगृहमानैर्निजशक्त्या त्यज्यतां हिंसा॥६०॥ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय
अर्थात् हिंस्य, हिंसक, हिंसा और हिंसा का फल- इन चार भावों को जानकर हिंसा का त्याग करना उचित है। अहिंसा की उपलब्धियाँ :
जैन साहित्य व धर्म में अहिंसा के विविध रूपों के साथ एक बात यह भी देखने को मिलती है कि अहिंसा का मूल स्रोत खान-पान की शुद्धि की ओर अधिक प्रभावित हुआ है। हिंसा से बचने के लिए खान-पान में संयम रखने को अधिक प्रेरित किया गया है किन्तु उतना राग, द्वेष, काम, क्रोध, जो भाव हिंसा के ही रूपान्तर है, के विषय में नहीं। इसके मूल में शायद यही भावना रही हो कि यदि व्यक्ति का आचार-व्यवहार शुद्ध और संयत होगा तो उसकी आत्मा एवं भावना स्वयमेव पवित्र रहेगी। किन्तु ऐसा हुआ बहुत कम मात्रा में है। आज अहिंसा के पुजारियों जैनों के खान-पान में जितनी शुद्धि दिखाई देती है, मन में उतनी पवित्रता और व्यवहार में वैसी अहिंसा के दर्शन नहीं होते। अतः यदि व्यक्ति का अन्तस् पवित्र हो, सरल हो तो उसके व्यवहार व खान-पान में पवित्रता स्वयं अपने-आप आ जायेगी।
____ अहिंसा के अतिचारों में जो पशुओं के छेदन, भेदन और ताड़न की बात कही गई है वह एक और नया तथ्य उपस्थित करती है। वह यह कि, जैनाचार्यों का हृदय मूक पशुओं की वेदना से अधिक अनुप्राणित था। यदि ऐसा न होता तो वे अहिंसा के अतिचारों में खान-पान की त्रुटियों को ही गिना देते। जबकि उन्होंने प्राणी मात्र के कल्याण की बात कही। आत्मवत् सर्वभूतेषु की बात कही। यही भावना आगे चलकर वैदिक यज्ञों की हिंसा का विरोध करती है और प्राणीमात्र को अभय प्रदान करती है। जैन संस्कृति ने उद्घोष किया यदि सचमुच, तुम निर्भय रहना चाहते हो, तो दूसरों को तुम भी अभय देने वाले बनो, निर्भय बनाओ।13 यह उसी का प्रतिफल है कि वैदिक युग के क्रियाकाण्डों और आज के हिन्दू धर्म अनुष्ठानों में पर्याप्त अन्तर आया है। भारतीय समाज के विकास में