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________________ अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 हर अवस्था में अहिंसक रह सकता है, उसमें मनोबल और अन्तस् की निर्मलता चाहिए। एक और ज्वलन्त प्रश्न अहिंसा के सिद्धान्त के विषय में अब उठने लगा है। वह यह कि यदि अहिंसा के सिद्धान्त पर हमें चलें तो आज विश्व में जो चारों ओर युद्ध का भयावह वातावरण व्याप्त है, उससे कैसे बच सकेंगे? क्योंकि युद्ध में भाव तो रोष के होते हैं, या तो वह चुपचाप शत्रु का वार सहता जाये अथवा अहिंसा को किनारे रख शस्त्र उठा लड़ने लग जाये। क्या कोई पक्ष के बचाव का भी रास्ता है? प्रश्न जितना जटिल और सम-सामयिक है, समाधान उतना ही सरल और न्यायसंगत है। जैन संस्कृति के इतिहास का अवलोकन करने पर पायेंगे कि- अनेक जैन राजा ऐसे हुए हैं जिन्होंने अनेक लड़ाइयाँ लड़ी हैं। चन्द्रगुप्त, सम्राट खारवेल, सेनापति चामुण्डराय आदि वीरयोद्धा भारतीय इतिहास के उज्जवल रत्न हैं। अत: अहिंसा यह कभी नहीं कहती कि दूसरे का अकारण चांटा खाकर तुम चुप हो जाओ। कोशिश यह करो कि उसका दुबारा फिर हाथ न उठे। अहिंसा सिर्फ आक्रमणात्मक हिंसा का विरोध करती है, रक्षणात्मक हिंसा का त्याग नहीं। जैनागमों में एक अहिंसक गृहस्थ के लिए यह विधान भी है कि यदि उसके धर्म, जाति, व देश पर कोई संकट आ पड़ा हो तो उसे चाहिए कि वह तन्त्र, मन्त्र, बल, सैन्य आदि शक्तियों द्वारा उसे दूर करने का प्रयत्न करे। एक देशवासी का राष्ट्र रक्षा भी धर्म होता है। अतः यदि युद्ध अनिवार्य हो तो उससे विमुख होना अहिंसा नहीं, कायरता है। ऐसे युद्ध में रत होकर अहिंसक अपना कर्तव्य ही करता है। क्योंकि हर प्राणी को जब स्वतंत्र जीने का अधिकार है तो उसमें बाधा देने वाला क्षम्य नहीं हो सकता। भले वह अपना पुत्र हो या शत्रु हो। जैनाचार्य दोषों के अनुसार दोनों को दण्ड देने का विधान करते हैं।12 अतः अहिंसा का क्षेत्र इतना व्यापक है कि उसमें कोई विरोध उपस्थित नहीं होता। उससे कायरता नहीं, निर्भयता का स्रोत प्रवाहित होता है। इस प्रकार व्यक्ति को, संयमी पुरुषों को सम्यक् रीति से हिंस्य, हिंसक, हिंसा और हिंसा का फल जानकर अपनी स्वशक्ति से हिंसा को
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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