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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 भण्डार है। किन्तु उसकी भी सीमा निर्धारित की जा सकती है। तृष्णा को कम करके यदि आवश्यक और अनिवार्य वस्तुओं का संग्रह किया जाये तथा उनके उपयोग के समय सन्तोष से काम लिया जाये तो हिंसा का कोई कारण नहीं दिखता। अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रह से संतुष्ट से संतुष्ट व्यक्ति अहिंसक है।
इससे मिलता-जुलता एक प्रश्न और उठता है- जल में स्थल में और आकाश में सब जगह जन्तु ही जन्तु है। इस जन्तुमय जगत् में भिक्षु अहिंसक कैसे रह सकता है?
जले जन्तुः स्थले जंतुराकाशे जंतुरेव च। जंतुमालाकुले लोके कथं भिक्षुरहिंसक॥ राजवार्तिक, ७.१३
इस प्रश्न का भी समुचित समाधान प्रस्तुत किया गया है क्योंकि ज्ञानध्यानपरायण अप्रमत्त भिक्षु को मात्र प्राणवियोग से हिंसा नहीं होती। दूसरी बात यह है कि जीव भी सूक्ष्म व स्थूल दो प्रकार हैं। संसार में जितने सूक्ष्म जीव हैं वे किसी के द्वारा पीड़ित नहीं होते अर्थात् वे न तो किसी से रुकते है, और न किसी को रोकते हैं, अत: उनकी हिंसा नहीं होती। और जो स्थूल है उनके लिय यत्ना रखी जाती है। अतः संयमी व्यक्ति के अहिंसा व्रत पालन करने में कोई बाधा नहीं आती।
जीवों के मरने न मरने पर कोई पाप-पुण्य नहीं होता। वह तो शुभ-अशुभ परिणामों एवं भावनाओं पर आधारित है।' सब कार्यों में भावों की निर्मलता एवं अन्तस् की पवित्रता आवश्यक हैं। यदि भावना को प्रधानता न दी जाये तो एक ही व्यक्ति द्वारा अपनी प्रियतमा और पुत्रों के साथ के व्यवहार में कोई अन्तर ही न रह जाये।
इसी बात को धीवर और कृषक का उदाहरण देकर भी जैनाचार्यों ने स्पष्ट किया है। प्राणीघात का कार्य दोनों करते हैं। किन्तु धीवर सुबह से शाम तक नदी किनारे बैठकर यदि खाली हाथ भी घर वापिस लौटता है तो वह हिंसक है, जबकि दिनभर में अनन्त स्थावर जन्तुओं का घातकर लौटने वाला किसान हिंसक नहीं कहा जाता है। यहाँ दोनों के संकल्प
और भावों के अन्तर की ही विशेषता है। अतः ऐसा कोई कारण नहीं है कि गृहस्थ जीवन में अहिंसा को न उतारा जा सके। मानव हर क्षण और