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________________ अनेकान्त 68/1, जनवरी - मार्च, 2015 71 द्वारा पुरुषार्थ सिद्धयुपाय नामक ग्रन्थ में किया गया वर्णन महत्त्वपूर्ण और जैन दृष्टिकोण को सुस्पष्ट करने वाला है। वहाँ निश्चय दृष्टि से हिंसा और अहिंसा का व्यावहारिक अन्तर स्पष्ट किया है- निश्चय से रागादि भावों को प्रकट न होना अर्थात् उत्पत्ति न होना ही अहिंसा है और उन रागादि भावों का उत्पन्न होना ही हिंसा है, यही जैन सिद्धान्त का सार है अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति । तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः ॥ ४४ ॥ - इसके साथ ही पुरुषार्थ सिद्धयुपाय में यह भी कह दिया है कि केवल प्राण पीड़न से हिंसा कभी भी नहीं होती। वह तो रागादिभावों से ही होती है और रागादि भावों के वश में प्रवर्तनी हुई अयत्नाचाररूप प्रमाद अवस्था में जीव मरे अथवा न मरे हिंसा तो निश्चित ही लगती है । अर्थात् परजीव के प्राण को पीड़ा न होते हुए भी प्रमाद के सद्भाव से हिंसा कही जाती है। युक्ताचरणस्य सतो रागाद्यावेशमन्तरेणापि । न ही भवति जातु हिंसा प्राणव्यपरोपणादेव ॥४५॥ व्युत्थानावस्थायां रागादिनां वशप्रवृत्तायाम्। म्रियतां जीवो मा वा धावत्यग्रे ध्रुवं हिंसा ॥४६॥ द्रव्यहिंसा और भावहिंसा की अपेक्षा से निश्चय कर कोई जीव हिंसा न करते हुए भी हिंसा के फल को भोगने का पात्र बनता है और दूसरा हिंसा करके भी हिंसा के फल को भोगने का पात्र नहीं होता। अविद्यायापि हि हिंसा हिंसाफलभाजनं भवत्येकः । कृत्वाप्यपरो हिंसा हिंसाफलभाजनं न स्यात् ॥५१॥ पुरुषार्थ सिद्धयुपाय अर्थात्- किसी जीव के बाह्य हिंसा तो नहीं की है; परन्तु प्रमादभावरूप से परिणमन किया है, इस कारण वह जीव उदयकाल में हिंसा के फल को भोगता है। दूसरा कोई जीव हिंसा करके भी हिंसा के फल को भोगने का पात्र नहीं होता। किसी जीव ने शरीर सम्बन्ध से बाह्य हिंसा तो उत्पन्न की है, परन्तु प्रमादभाव रूप परिणमन नहीं किया, अतः वह जीव हिंसा के फल का भोक्ता नहीं होता । गृहस्थ जीवन परिग्रह का
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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