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________________ अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015 सामयिक ज्वलन्त समस्या पर विशेष..... सल्लेखना : जैन धर्म की सर्वोच्च साधना, ना कि आत्महत्या - प्रो. फूलचन्द 'प्रेमी' निदेशक, बी.एल. इंस्टीच्युट आफ इण्डोलॉजी,नई दिल्ली राजस्थान उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति सुनील अम्बवानी एवं न्यायमूर्ति अजीत सिंह की खण्डपीठ ने संथारा (सल्लेखना) प्रथा पर रोक लगाते हुए ऐसा करने वाले के खिलाफ भारतीय दण्ड संहिता की धारा 306 के अन्तर्गत मामला दर्ज करने के निर्देश दिये हैं। | प्रसन्नता की बात है कि माननीय सप्रीम कोर्ट ने दि. ३१ अगस्त, १५ को राजस्थान उच्च न्यायालय के उक्त निर्णय पर ‘स्टे दे दिया है। संथारा (सल्लेखना) जैनधर्म का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा है। श्रवणबेलगोला के पहाड़ों में जैन आचार्यों ने, श्रमणों की आत्मसाधना का प्रमाण वहाँ के शिलालेखों से पता चलता है कि सम्राट-चन्द्रगुप्त मौर्य ने जैनधर्म की दीक्षा लेकर स्वयं सल्लेखना (संथारा) किया था। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर जी महाराज ने 36 दिवसीय सल्लेखना धारण कर महाप्रयाण किया था। आचार्य विनोबा भावे ने अंतिम समय 155 घण्टे का संथारा धारण किया था। उन्होंने आत्म हत्या नहीं की थी। सल्लेखना (संथारा) और आत्महत्या में बड़ा मौलिक अन्तर है। आत्महत्याक्रोध के कारण, वासना व मोह के कारण, व्यापार में बड़ा नुकसान किसी प्रिय के वियोग, इच्छाएँ पूरी न होने से करता है। जबकि सल्लेखनासमता भावों से, शरीर अत्यन्त वृद्ध हो जाने से, असाध्य रोग हो जाने से रत्नत्रयधर्म के परिपालनार्थ, शरीर को आत्म-जागरण पूर्वक त्याग करना है। इस संबन्ध में विद्वान लेखक डॉ. प्रेमी जी का आलेख चिंतनीय है एवं सल्लेखना पर विशद प्रकाश डाल रहा है। - संपादक
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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