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अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015 है और अपथ्यपूर्वक रहने वालों की औषधि का सेवन क्या कार्यकारी होगा? अपथ्य सेवन से रोगोत्पत्ति होती है। इस प्रकार जैनाचार आयुर्वेद ही है। यदि ऐसा भी कह दिया जावे तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। आयुर्वेद भी उपवास, भूख से कम खाने, खट्टे, मीठे रसों के सेवन या त्याग पर बल देता है। आयुर्वेद में चलितरसीय पदार्थों का सेवन भी वर्जित है, व्याधिकारक पदार्थों को भी नहीं खाने का आग्रह किया गया है। बिना छना पानी भी वर्जित है। उष्ण किये गये पानी का सेवन करना स्थान-स्थान पर कहा गया है। उष्ण पानी के सम्बन्ध में एक घटना स्मरण हो आयी उसे लिखने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ। घटना इस प्रकार है
जयपुर राज्य के प्रमुख चिकित्साधिकारी, चीफ सर्जन डॉ. दुर्जनसिंहजी से मुलाकात हुई। वे प्रायः अपने रोगियों को कहा करते थे कि 'तुम सरावगी पानी पिया करो', मैंने उन्हें एक दिन पूछ ही लिया कि आप सरावगी पानी किसे कहते हैं? उन्होंने कहा कि शास्त्रीजी सरावगी होकर भी आप सरावगी पानी नहीं जानते। अरे ! मैं छानकर जो पानी गर्म कर लिया जाता है उसे सरावगी पानी कहता हूँ। जिस पानी का सेवन आपका साधु वर्ग करता है वह पानी बहुत गुणकारक है और उदर सम्बन्धी अनेक रोगों का सबसे बढ़ा चिकित्सक है। आपका साधु वर्ग प्रायः कम ही बीमार पड़ता है, क्योंकि वे शुद्ध आहार-पान करते हैं। शुद्ध आहार-पान ही आरोग्यता की जड है।
अतः मेरा इतना ही निवेदन है कि संसार में इस समय अनेक प्रकार की भयंकर बीमारियां चल रही हैं उनसे बचने के लिए ही सही हमें जैनाचारा को अपने जीवन में स्थान देना चाहिए। उसके अनुसार हमारे खान-पान, रहन-सहन का ढंग संयमित होता है और हम भक्ष्याभक्ष्य का विवेक रखते हैं तो स्वस्थ रह सकते हैं।
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