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अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015
73 इनको ग्राह्य नहीं माना है। अत: यह तो निर्बाध सिद्ध है कि आयुर्वेद और जैनाचार का बड़ा निकटतम सम्बन्ध रहा है। हम यह निश्चित रूप से कह सकते हैं कि जैन धर्म के अनुयायियों को जिन प्रारंभिक नियमों का पालन करने को कहा है उनके अतिरिक्त सद्गृहस्थ और साधु पुरुषों की जो भी दिनचर्या शास्त्रों में कही गई जिनमें आहार चर्या की प्रमुखता है, का बड़ा वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखा गया है। जैन धर्मानुसार विहित नियमोपनियम धार्मिकता के साथ-साथ स्वास्थ्य रक्षा में भी अत्यन्त सहायक साधन है।
जैनसाधु 24 घण्टे में सूर्योदय के कम से कम 72 मिनिट पश्चात् और सूर्यास्त से कम से कम 72 निमिट पूर्व दिन में एक बार आहार ग्रहण करते हैं। दूसरी बार पानी भी नहीं लेते। अतः आंतों को भोजन पचाने के लिए समय अधिक मिलता है। इसके अतिरिक्त गरिष्ठ, अमर्यादित व कंद मूलादि, प्रमाद बढ़ाने वाले पदार्थ, अनष्टिकारक व अनुपसेव्य पदार्थों का वे प्रयोग नहीं करते। सात्त्विक भोजन करते हैं और यथावसर अनशन, अवमौदर्य, रस परित्याग आदि तपों को भी करते हैं, जिससे शारीरिक स्वास्थ्य को बनाये रखने में भी बहुत सहयोग मिलता है और अहिंसा प्रधान धर्म का भी परिपालन होता है। समय-समय पर विभिन्न रसों का परित्याग वे करते रहते हैं जिससे जब जैसे रस की आवश्यकता शरीर को होती है, वह उसे मिलता है और जिसकी आवश्यकता नहीं होती उसका सेवन भी बच जाता है, क्योंकि बदलते हुए आहार में प्रायः रसों का परिवर्तन करते रहते हैं।
साधु चर्या में प्रासुक (गर्म) पानी के सेवन की ही प्रमुखता है। अतः स्वास्थ्य की रक्षा में गर्म पानी का भी योगदान मिलता रहता है। आयुर्वेद में भी प्रायः सामान्य रोगों की चिकित्सा तो आहार (खान-पान) शुद्धि से सही हो जाया करती है। चिकित्सा क्षेत्र में पथ्या पथ्य आहार-विहार का महत्वपूर्ण स्थान है। पथ्य रूप आहार-विहार ही अनेक रोगों का चिकित्सक है। कहा भी है
पथ्ये सति गदार्तस्य किमौषधनिषेवर्णः।
अपथ्ये सति गदार्तस्य किमौषधनिषेवणैः। अर्थात् पथ्य पूर्वक रहा जावे तो औषध सेवन की क्या आवश्यकता