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अनेकान्त 68/4, अक्टू-दिसम्बर, 2015
जैनधर्म ने जीवन जीने की कला की जो आदर्श पद्धति प्रस्तुत की है। उसी प्रकार उसने मृत्यु को महोत्सव बनाकर दुर्लभ मानव जीवन को सार्थक करने की कला सिखाने की भी आदर्श पद्धति प्रस्तुत की है। इस आधार पर कोई भी मनुष्य अपने सम्यक पुरुषार्थ द्वारा जीवन और मृत्यु-इन दोनों को सार्थक बना सकता है। जैन साधना पद्धति में जो संयममय जीवन जीते हैं, वे इसके पूर्ण अधिकारी बनते हैं, क्योंकि संथारा-सल्लेखना एक साधारण एक दिन की क्रिया नहीं, अपितु सम्पूर्ण जीवन की साधना की असाधारण फलश्रुति और सार्थकता है। सल्लेखना विषयक साहित्य -
____ 'मृत्यु-महोत्सव' के रूप में प्रसिद्ध सल्लेखना, संथारा या समाधिमरण जैसे अति महत्वपूर्ण विषय पर जैनाचार्यों ने काफी कुछ लिखा है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, कन्नड, तमिल जैसी प्रायः सभी प्राचीन भारतीय भाषाओं में सल्लेखना विषयक जैन साहित्य विपुल मात्रा में उपलब्ध है। अर्धमागधी प्राकृत के आगम साहित्य के साथ ही दो हजार वर्ष पहले शौरसेनी प्राकृत भाषा में श्रमणाचार विषयक प्रमुख रूप से सल्लेखना, संथारा और समाधिमरण पर बहुत प्राचीन आचार्य शिवार्य द्वारा लिखा गया 'भगवती आराधना' नामक बृहद् ग्रंथ श्रमणाचार परक होने पर भी मुख्यतः समाधिामरण विषय का सांगोपांग विवेचन करने वाला ग्रंथराज है। दूसरी-तीसरी शताब्दी के आचार्य वट्टकेर द्वारा प्रणीत मूलाचार में भी समाधिमरण का अच्छा विवेचन है। इसी तरह तीसरी शती के आचार्य समन्तभद्र स्वामी विरचित रत्नकरण्ड श्रावकाचार सहित प्रायः सभी श्रावकाचार और श्रमणाचार "मृत्यु-महोत्सव" नाम के भी अनेक लघुग्रंथ तथा समाधिमरण के समय साधक को सम्बोधन के उद्देश्य से लिखी गई अनेक स्फुट रचनायें भी उपलब्ध हैं।
पं. आशाधर द्वारा लिखित सागारधर्मामृत ग्रंथ के अष्टम अध्याय में इस विषय का सम्पूर्ण और सजीव चित्रण किया। पं. सदासुखदास जी जैसे अनेक विद्वानों ने भी अपने ग्रन्थों में सल्लेखना की महत्ता और सार्थकता का अच्छा विवेचन प्रस्तुत कर, स्वयं इसका स्वानुभव करते हुए जीवन के अन्त में समताभाव पूर्वक समाधिामरण द्वारा अपने जीवन को सार्थक किया। सल्लेखना का स्वरूप एवं भेद -