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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 बौद्धदर्शन का खण्डन करने में मात्र दो कारिकाओं का उल्लेख किया है, जिसमें कहा है कि- १५
क्षणिकं निष्क्रियं चित्तं स्वशरीरप्रदेशतः। भिन्नं चित्तातरं नैव प्रारभेत सविग्रहम्।। सर्वकारणशून्ये हि देहे कार्यस्य जन्मनि।
काले वा न क्वचिज्ज्ञातुमस्य जन्मन सिद्धयति।। पूर्व क्षण में उत्पन्न होकर दूसरे क्षण में समूल नष्ट हो जाने वाला निष्क्रिय क्षणिक चित्त (आत्मा) स्वशरीर प्रदेश से भिन्न शरीर सहित दूसरे चित्त (आत्मा) को उत्पन्न नहीं कर सकता।
बौद्ध आत्मद्रव्य को क्षणिक, निष्क्रिय अणुविज्ञान स्वरूप मानते हैं। पहले समय का चित्त सर्वथा नष्ट हो जाता है। दूसरे समय में सर्वथा नवीन चित्त उपजता है। उनके यहाँ की यह दशा बालक, युवा, वृद्धावस्थाओं में भी घटना कठिन है, क्षणिक चित्त (आत्मा) जन्मान्तर में जाकर उपज जाय, यह तो असम्भव ही है।
बौद्ध तो बाण का भी देशान्तर में पहुँच जाना नहीं मानते हैं। पूर्व प्रदेशों पर स्थित हो रहा बाणस्वरूप अवयवों की राशि सर्वथा नष्ट हो जाती है। अगले प्रदेशों पर दूसरे समय में अन्य ही बाण उपजता है। यही उत्पाद विनाश का क्रम लक्ष्यदेश की प्राप्ति तक बना रहता है। वही का वही बाण लक्ष्य तक पहँच पाता है। बौद्धों को असत् के उत्पाद और सत के विनाश जाने का डर नहीं है। घूमते हुए चाक में भी वे क्रिया न मानकर प्रत्येक प्रदेश पर नवीन-नवीन चाक का उत्पाद-विनाश स्वीकार करते हैं। ऐसा सिद्धान्त मानने पर निष्क्रिय चित्त भला जन्मान्तर में जाकर दूसरे चित्त को नहीं उत्पन्न करा सकता है। अतः बौद्धों के यहाँ विग्रहगति सम्भव नहीं है।
इसी प्रकार सांख्य दर्शन जो कूटस्थ नित्यवादी हैं। उसके सिद्धान्त में भी विग्रहगति संभव नहीं है, क्योंकि सर्वथा कूटस्थ नित्य आत्मा भी पूर्व शरीर को छोड़ नहीं सकता और उत्तम शरीर को ग्रहण नहीं कर सकता क्योंकि पूर्व शरीर को छोड़कर उत्तर शरीर को ग्रहण करने पर आत्मा के अनित्यत्व का प्रसंग आयेगा। आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने दो कारिकाओं में कूटस्थ नित्यवादी का खण्डन किया है, जो इस प्रकार दृष्टव्य है१६