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________________ 34 अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 कूटस्थोपि पुमान्नैव जहाति प्राच्यविग्रहम्। न गृह्णात्युत्तरकायमनित्यत्वप्रसंगतः।। परित्यागी यथा कालं गतिमानाहरत्यतः। स्वोपात्तकर्मसृष्टेष्टदेशादीन् पुद्गलान्तरम्।। विग्रहगति को व्याख्यायित करने में आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने प्रमुख रूप से नैयायिक-वैशेषिक, सांख्य, बौद्ध दार्शनिकों का खण्डन किया है। परन्तु विग्रह गति के सम्बन्ध में उक्त दार्शनिकों के अतिरिक्त जब विचार करते हैं, तो ज्ञात होता है कि चार्वाक दर्शन तो मरणोपरान्त आत्मा का अस्तित्त्व ही नहीं मानता और मीमांसा एवं वेदान्तदर्शन में मीमांसादर्शन तो ब्रह्म के अतिरिक्त अन्य आत्माओं का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार ही नहीं करता है। इसलिए विग्रहगति का कोई प्रश्न ही नहीं और वेदान्तदर्शन में अद्वैतवादियों के भी आत्मा पृथक नहीं और द्वैतवादी कहते हैं कि अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः। ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा।। महाभारत/ वनपर्व/३०/२८ अर्थात् यह यज्ञ और शक्तिहीन प्राणी अपने सुख-दुःख के अनुसार ईश्वर प्रेरित होकर स्वर्ग अथवा नरक को जाता है। इस प्रकार द्वैतवादियों के भी विग्रहगति की व्यवस्था ईश्वर और यमराज एवं यमदूत के अधीन हैं। अतः स्पष्ट है कि आचार्य विद्यानन्द स्वामी ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार में उन्हीं दार्शनिकों से विचार-विमर्श करना चाहा जो आत्मा के पृथक् अस्तित्व स्वीकार करते हैं। क्योंकि जो आत्मा का पृथक अस्तित्व स्वीकार नहीं करते हैं, उनके मत में विग्रहगति सम्भव नहीं है। अतः आचार्य विद्यानन्द महाराज ने पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित विग्रहगतौ कर्मयोगः इस सूत्र के अनुसार ही अपने मन्तव्य को अनेक तर्कों के माध्यम से स्पष्ट किया है, जो उत्तरवर्ती आचार्यों के लिए अनुकरणीय रहा। जैनदर्शन में विग्रहगति तो स्वीकार की है, उसके आगे भी विचार किया है कि वह विग्रहगति कितने प्रकार की है। उस विषय में आचार्य उत्तर देते हैं कि वह विग्रहगति चार प्रकार की है - इषुगति, पाणिमुक्ता, लांगलिका और गोमूत्रिका। इषुगति विग्रहरहित और शेष विग्रहसहित होती है। धनुष से
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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