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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015
का स्वसंवेदन हो रहा है। अतः आत्मा के व्यापकत्व को साधने वाले सभी हेतु अकिंचित्कर हैं।
इसी प्रकार वैशेषिकों को द्वारा प्रयुक्त किया गया नित्यत्व, अमूर्तत्व और विभुत्व हेतु ईश्वरज्ञान के द्वारा व्यभिचारी सिद्ध होता है, ३ क्योंकि ईश्वरज्ञान के अमूर्तत्व और नित्यत्व होते हुए भी व्यापक नहीं है। ईश्वरज्ञान को अनित्य कहेंगे तो, ग्रहीतग्राही होने से धारावाहिक ज्ञान के समान ईश्वरज्ञान प्रामाणिक नहीं हो सकता है। यदि गृहीत ग्राही और अनित्य होने पर भी ईश्वरज्ञान में अप्रमाणता नहीं स्वीकारोगे तो स्मृति, प्रत्यभिज्ञान को भी वैशेषिकों को स्वीकार करना पड़ेगा, सो उनको इष्ट नहीं है।
उपर्युक्त सूक्ष्मातिसूक्ष्म तर्कों से यह सिद्ध हुआ कि न्याय-वैशेषिक दर्शन में आत्मा में गति क्रिया सिद्ध होना संभव नहीं है। अतः जैनदर्शन में पूर्वाचार्यों ने जैसा स्वीकार किया है, वैसा ही आचार्य विद्यानंद स्वामी ने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार में “विग्रहगतौ कर्मयोगः” को व्याख्यापित कर पञ्चावयवों का प्रयोग कर निम्न प्रकार से आत्मा में गति सिद्ध की है । ९४ कहते हैं कि ‘आत्मा में (पक्ष) क्रिया के हेतुभूत गुणों का सम्बन्ध हो रहा है। (साध्य) शरीर में उन गुणों से की गयी क्रिया प्रत्यक्ष ज्ञान होने से (हेतु) जहाँ जिसके द्वारा की गई क्रिया का उपलब्ध हो रहा है, वहाँ क्रिया के हेतुभूत गण का सम्बन्ध है । (अन्वयदृष्टांत) जैसे कि वृक्षस्वरूप वनस्पति में वायु द्वारा की गयी क्रिया का उपलम्भ होने से वायु में क्रियाहेतु वेग या ईरण (धक्का देना) विद्यमान है । उसी प्रकार काया में आत्मा द्वारा की गयी क्रिया का उपलम्भ हो रहा है । (उपनय) अतः इस कारण से शरीरी आत्मा में क्रिया के हेतुभूत गुणों का संबन्ध है (निगमन) इस प्रकार क्रिया के सम्पादक गुणों का सम्बन्ध हो रहा होने से आत्मा में गतिक्रिया सिद्ध होती है। इस प्रकार परिणमनशील संसारी जीव के अन्य शरीर की प्राप्ति के लिए जो गति की जाती है, वह विग्रहगति है।
आचार्य विद्यानन्द स्वामी द्वारा न्याय-वैशेषिक मत का विस्तार से खण्डन कर बौद्धदर्शन, सांख्ययोगदर्शन का भी संक्षेप में खण्डन किया है।