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________________ अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 अकलंक के ग्रन्थों में प्राप्त होता है तथा इसी कारण उन्हें जैनन्याय का जनक कहा जाता है। आचार्य अकलंक की ही परंपरा को अनवरत रखते हुये आचार्य हरिभद्र, विद्यानन्दि, माणिक्यनन्दि आदि आचार्यों ने इस न्यायविद्या को पुष्ट किया तथा आचार्य प्रभाचन्द्र ने अपनी तार्किक मेधा के बल से आचार्य अकलंक के लघीयस्त्रय पर न्यायकुमुदचन्द्र एवं आचार्य माणिक्यनन्दि के परीक्षामुखसूत्र पर महाभाष्य स्वरूप प्रमेयकमलमार्तण्ड टीका लिखकर जैनन्याय के स्वरूप को पूर्णता प्रदान की। इस प्रकार न्यायशास्त्र में प्रमाण और उसके अंगोपांगों अनुमानादि के विवेचन का ही प्राधान्य है और अद्यतन इसी आधार पर अनेकानेक स्वतंत्र ग्रंथ रचे गये हैं। संदर्भ1. विद्यां चाविद्यां च यस्तद् वेदोभयं सह। अविद्या मृत्यु तीा विद्ययाऽमृतमङ्घनुत।। ईवावास्योपनिषद्, मन्त्र 11 2. द्वे विद्ये वेदित्व्ये हि परा चैवापरा च ते। रूद्रहृदयोपनिषद्, मन्त्र 28 । 3. मुण्डकोपनिषद्, मंत्र 41 4. तत्रपरा ऋग्वेदो यजुर्वेद:सामवेदोऽथर्ववेदः चिाक्षा कल्पो व्याकरणं निरूक्तं छन्दो ज्योतिषमिति। अथ परा ययातदक्षरमधिागम्यते।मुण्डकोपनिषद्, मंत्र 51 6. नास्तिको वेदनिन्दकः। मनुस्मृति 2:11। 7. तन्त्रवार्तिक, 1/3/2, पृ., 81। 8. कौटिल्य अर्थ शास्त्र-1/2/11 9. कौटिल्य अर्थ शास्त्र-1/2/1। 10. न्यायभाष्य 1.1.11 11. न्यायभाष्य 1.1.11 12 उद्धत, सांख्य प्रवचन, पृ. 41 13. सांख्य दर्शनम् , प्र. परि. 1/25 पृ. 3071 14. वात्स्यापन भा. 1/1/1 । 15. न्यायभाष्य सूत्र 1/1। 16. आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीति चेति चतस्रोराजविद्याः। अधीयानो ह्यान्वीक्षिकी कार्याणाबलाबलं हेतुभिर्विचारयति, व्यसनेशु न विषीदति, नाभ्युदयेन विकार्यते समधिगच्छति प्रज्ञावाक्यवै शारद्यम।। नी.वा , श्लोक 561 17. मनुस्मृति, अ. 7, श्लोक 43। 18. आन्वीक्षिक्यधयात्मविषये.. 1160।। नीतिवाक्यामृत, श्लोक 601 19. न्यायभाष्य 1/1/1 | 20. वात्स्यायनभाष्य, 1/1/1 । 21. नीयते ज्ञायते विवक्षितार्थो नेनति न्यायः-न्यायकुसुमोजलिो ___ -नितरामीयन्ते गम्यन्ते गव्यर्थानां ज्ञानार्थत्वात् ज्ञायन्तेऽर्थाः अनित्यत्वास्तित्वादयोऽनेनेति न्यायः तर्क मार्गः। न्याय प्रवे शपजिका पृ.11 -निश्चितं च निर्वाधं च वस्तुतत्त्वमीयतेऽनेनेतिन्यायः। न्यायविनि चयालंकार, भा.1, पृ.33। - सहायक आचार्य, जैनविद्या एवं तुलनात्मक धर्म तथा दर्शन विभाग जैन विश्वभारती विश्वविद्यालय, लाडनूं (राजस्थान)
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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