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________________ अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 जब बौद्धों और जैनों ने न्याय शास्त्र की ओर अपना ध्यान आकर्षित किया तब तक न्यायदर्शन इस विद्या में पूर्ण उन्नति कर चुका था। 89 न्यायसूत्रों के उद्भव का सुनिश्चित काल ज्ञात नहीं है, किन्तु एक सुव्यवस्थित दर्शन के रूप में न्यायदर्शन का उद्भव अन्य प्राचीन दर्शनों से अर्वाचीन है। बौद्ध" दार्शनिक नागार्जुन ने अपनी कृति न्याय दर्शन के सोलह पदार्थों पर आक्षेप किया है अतः नागार्जुन के समय में न्यायसूत्र किसी न किसी रूप में उपस्थित होना चाहिए। नागार्जुन के पूर्व बौद्ध धर्म में किसी ने न्यायसूत्र की ओर ध्यान नहीं दिया था परन्तु जब नागार्जुन के सिद्धान्त को अमान्य किया गया तो बौद्ध दार्शनिक असंग और वसुबन्धु ने न्याय शास्त्र की ओर ध्यान दिया । वसुबन्धु तर्क शास्त्र के प्रसिद्ध विद्धान हुए हैं। उन्होंने तर्क शास्त्र पर तीन प्रकरण भी रचे है। उनके पश्चात् दिङ्नाग और धर्मकीर्ति बौद्ध दार्शनिक ने न्याय शास्त्र को यथार्थरूप में स्वीकार करके 'बौद्ध न्याय' को प्रतिष्ठित किया। बौद्ध न्याय के पिता दिङ्नाग और उनके अनुयायी धर्मकीर्ति के पश्चात जैनपरम्परा में जैनन्याय के प्रस्थापक अकलंक देव का जन्म हुआ और जैनदर्शन में जैनन्याय पर स्वतंत्र ग्रन्थों की रचना हुई। जैसे युद्धकाल में युद्ध के उपकरणों का विकास होता है वैसे ही विविध दर्शनों के पारस्परिक संघर्ष काल में स्वपक्ष के रक्षण और परपक्ष के निराकरण के लिए तर्क शास्त्र का विकास हुआ। रसियन विद्वान चिरविट्स्की ने 'बौद्ध न्याय' नामक विद्वत्तापूर्ण ग्रंथ के प्रारंभ में लिखा है कि बौद्धन्याय से हम तर्क शास्त्र की उस पद्धति का बोध करते हैं जिसका निर्माण ईसा की 6-7 वीं शताब्दी में बौद्ध धर्म के दो महान तार्किक दिङनाग और धर्मकीर्ति ने किया था। इनके साहित्य में सर्वप्रथम परार्थानुमान का वर्णन है। अतः परार्थानुमान ही तर्क या शब्द से कहे जाने के लिए सर्वथा उपयुक्त है। दूसरों को समझाने के लिए जो अनुमान प्रयोग किया जाता है उसे परार्थानुमान कहते है। विकल्प या अध्यवसाय, अपोहवाद और स्वार्थानुमान के सिद्धान्त उसी परार्थानुमान की देन है। जैन परम्परानुसार जैन न्याय के बीज आगम साहित्य में तो प्राप्त होते ही हैं साथ ही दर्शन युग के प्रणेता आचार्य कुन्दकुन्द आचार्य समन्तभद्र, आचार्य सिद्धसेन आदि आचार्यों ने अपने-अपने ग्रन्थों में न्यायविद्या को स्थान दिया, परन्तु जैन न्याय का पूर्णविकसित रूप आचार्य
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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