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________________ 88 अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 और इस शैली का प्रथम ग्रन्थ 'तत्त्वचिन्तामणि' गणेशोपाध्याय ने लिखा। कौटिल्य का अनुसरण करते हुए जैनाचार्य सोमदेव ने (959ई) में लिखा है कि आन्वीक्षिकी विद्या का पाठक हेतुओं के द्वारा कार्यों के बलाबल का विचार करता है, संकट में खेद खिन्न नहीं होता, अभ्युदय में मदोन्मत्त नहीं होता और बुद्धि कौशल तथा वाक्कौशल को प्राप्त करता है। किन्तु मनुस्मृति में आन्वीक्षिकी को आत्मविद्या” कहा है और सोमदेव ने भी आन्वीक्षिकी को अध्यात्मविषय मे प्रयोजनीय बतलाया है। नैयायिक वात्स्यायन ने अपने न्यायभाष्य के आरम्भ में लिखा है कि ये चारों विद्यायें प्राणियों के उपकार के लिए कही गयी हैं। जिनमें चतुर्थी यह आन्वीक्षिकी न्यायविद्या है। इसके पृथक प्रस्थान संशय आदि पदार्थ है, यदि उन संशय आदि का कथन न किया जाये तो यह केवल अध्यात्मविद्या हो जायेगी, जैसे कि उपनिषद्। इसका आशय यह है कि यदि आन्वीक्षिकी में न्याय शास्त्र प्रतिपादित संशय, छल, जाति आदि का प्रयोग किया जाता है तो वह न्यायविद्या है अन्यथा तो अध्यात्मविद्या है। इस तरह आन्वीक्षिकी का विषय आध्यात्म भी है और हेतुवाद भी है। इनमें से आत्मविद्या रूप आन्वीक्षिकी का विकास 'दर्शन' कहलाया तथा हेतुविद्या रूप आन्वीक्षिकी का विकास 'न्याय' कहलाया। वात्स्यायन भाष्य में 'आन्वीक्षिकी' का अर्थ न्याय विद्या करते हए लिखा है कि 'प्रत्यक्ष और आगम के अनुकल अनुमान को अन्वीक्षा कहते हैं। अतः प्रत्यक्ष और आगम से देखे हुए वस्तुतत्त्व के पर्यालोचन या युक्तायुक्तविचार का नाम अन्वीक्षा है और जिसमें वह हो उसे आन्वीक्षिकी कहते हैं। न्याय' शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए भी शास्त्रकारों ने इसका यही अर्थ किया है कि जिसके द्वारा निश्चित् और निर्वाध वस्तुतत्व का ज्ञान होता है उसे न्याय कहते हैं। ऐसा ज्ञान प्रमाण के द्वारा होता है इसी से न्याय विषयक ग्रन्थों का मुख्य प्रतिपाद्य प्रमाण सिद्ध होता है। अक्षपाद ने न्याय शास्त्र को लेकर ही एक दर्शन की स्थापना की थी जिसे न्यायदर्शन कहते हैं। इस दर्शन ने सोलह पदार्थो के तत्त्वज्ञान से मोक्ष की प्राप्ति माना है। उन सोलह पदार्थों में जल्प, वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति आदि भी हैं। जिनका उपयोग मुख्यरूप से वादविवाद में ही होता है। न्याय दर्शन के न्यायसूत्र नामक मूल ग्रन्थ में इन सबका सांगोपांग वर्णन है।
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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