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________________ 87 अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 करना। न्याय दर्शन में चार प्रमाण माने गये हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द (आगम)। इसका दूसरा नाम वादविद्या भी है। क्योंकि इसमें वाद में प्रयुक्त हेतु, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रहस्थान आदि का वर्णन किया गया है। न्याय सूत्र के रचयिता गौतमऋषि हैं इन्हीं का नाम अक्षपाद है। न्याय दर्शन को मानने वाले नैयायिक कहलाते हैं। नैयायिकों ने प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितण्डा, छल, जाति और निग्रहस्थान ये सोलह पदार्थ माने हैं। तथा आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति दोष, प्रत्यभाव (पूनर्जन्म), फल, दुख, और अपवर्ग (मुक्ति) ये 12 प्रमेय माने हैं। नैयायिक सन्न्किर्ष को प्रमाण मानते हैं। तथा उसे अस्वसंवदी माना गया है। उनका मत है कि ज्ञान स्वयं अपना प्रत्यक्ष नहीं करता है किन्तु दूसरे ज्ञान के द्वारा उसका प्रत्यक्ष होता है। नैयायिकों के समान वैशेषिक भी सन्निकर्ष को प्रमाण मानते हैं। दोनों ने ही अर्थ और आलोक को ज्ञान का कारण माना है। दोनों ही गृहीतग्राही धारावाहिक ज्ञान को प्रमाण मानते हैं तथा आत्मा को शरीर परिमाण न मानकर व्यापक मानते हैं। सष्टि का कर्त्ता ईश्वर को मानते हैं तथा दोनों ही दर्शनों ने हेतु के पांचरूप (पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व, विपक्षव्यावृत्ति, अबाधित विषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व) माने हैं। तथा अनुमान के प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन ये पांच अवयव माने हैं। न्याय दर्शन भारतीय दर्शनों की महत्त्वपूर्ण शाखा है जिसका ज्ञान न केवल दर्शन-शास्त्रों को समझने के लिए अपितु संस्कृत वाङ्मय की अन्य शाखाओं से स्वयं को भी अवगत कराने के लिए नितान्त आवश्यक है। प्रारम्भ से ही सभी शास्त्रों पर न्याय शास्त्र की गहरी छाप पड़ी है और उसकी मान्य पद्धतियों के अनुसार ही अन्य शास्त्रों का विकास हुआ है। किन्तु जब बौद्ध सम्प्रदाय के विद्वानों ने वैदिक दर्शनों की मान्यताओं की आलोचना करते हुए एक नवीन तर्क प्रधान विचार दृष्टि प्रस्तुत की तथा वैचारिक जगत् में ऐसी क्रान्ति उत्पन्न की जिससे भारत की पुरातन मान्यताएँ और मर्यादाएँ अभिभूत होने लगीं। तब आवश्यक हुआ कि शास्त्रीय विचारों में न्यायपद्धति को ऐसा अभिनव रूप दिया जाय जिससे विवादास्पद विषयों के सम्बन्ध में गम्भीर और यथार्थ चिन्तन किया जा सके। फलत: न्याय में एक नयी शैली का अविर्भाव हुआ जो भाषा और सरणि की दृष्टि से अत्यन्त प्रौढ़ और परिष्कृत थी। न्याय की यह शैली 'नव्यन्याय' शब्द से अभिहित होने लगी
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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