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________________ अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 वचन-वर्गणाएँ मन-वचन के रूप में परिणमन करती है। उसी समय आगामी काल में होने वाली पर्याय के योग्य कर्मबन्ध, कर्मोदय आदि सब होते हैं। पूर्व में संचित कर्मों की निर्जरा आदि होते हैं तथा अनुगम रूप से इन सभी पर्यायों में जीवादि का अस्तित्व बना रहता है। इस प्रकार एक ही समय में एक ही द्रव्य में अनेक उत्पाद, व्यय और स्थिति में सह-अस्तित्वपना सिद्ध होता है। परमतों में सह अस्तित्व - एक ही वस्तु के विभिन्न धर्मों का कथन करने के वक्ता के जितने कथन-प्रकार या अभिप्राय होते हैं वे सभी अपने आप में नय है अतः अभिप्राय जितने उतने ही नयवाद और यदि वे सभी नय अपने-अपने कथन को ही स्वीकार करते हुए अन्य सभी नयों का निषेध करते हैं तो उतने ही परमत होते हैं। और उन सभी की सत् प्ररूपणा करते हुए यदि अपने कथन को स्वीकार करते हुए अन्य को गौण करके उस समय उनका कथन न भी करें, परन्तु उनके अस्तित्व को स्वीकार करें तो वे सभी परमत सह-अस्तित्व से सत् वस्तु की प्ररूपणा का साधन बनते हैं। तीसरे काण्ड की गाथा 48 से 51 तक आचार्य ने सभी परमतों का कथन करते हुए स्पष्ट किया है कि परमार्थ से या द्रव्यार्थिक नय से एकान्त मान्यता का प्रतिपादन करने वाला सांख्य दर्शन है। यह दर्शन किसी अपेक्षा से सत् का विनाश तथा किसी अपेक्षा से असत् का उत्पाद नहीं मानता है। यह द्रव्यार्थिक नय की रीति से द्रव्य को ही विषय करता है। सांख्य के अनुसार प्रकृति, पुरुष आदि पच्चीस तत्वों का सद्भाव ही है, अभाव नहीं। प्रधान और अव्यक्त ये प्रकृति के पर्यायवाची शब्द हैं। अव्यक्त से जिन बुद्धि आदि 23 तत्वों की उत्पत्ति होती है उनको व्यक्त कहते हैं। कहा भी है : हेतुमदनित्यमव्यापि सक्रियमनेकमाश्रितं लिंगम्। सावयवं परतन्त्रं व्यक्तं विपरीतमव्यक्तम्॥२४ अर्थात् व्यक्त कारण सहित होता है, अनित्य होता है, अव्यापक होता है, क्रिया सहित होता है, अनेक होता है, अपने कारण के आश्रित होता है, प्रलयकाल में प्रधान में लय को प्राप्त हो जाता है, अवयव सहित
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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