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अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 है और प्रधान के आधीन होने से परतन्त्र है, यह व्यक्त का लक्षण है और अव्यक्त का लक्षण इसके विपरीत है। सांख्यदर्शन परिणामवादी सिद्धान्त है। इसकी दृष्टि में प्रत्येक तत्व सत् स्वरूप ही है। इसके विपरीत बौद्धदर्शन केवल वर्तमान पर्याय मात्र तत्त्व मानता है। उसकी दृष्टि में कोई भी तत्त्व त्रिकालवर्ती नहीं है। क्षणभंगवाद या क्षणिकवाद बौद्ध दर्शन की विशेष मान्यता या सिद्धान्त कहा जा सकता है। इस दर्शन में कोई भी वस्तु एक क्षण ही ठहरती है और दूसरे क्षण में वह नहीं रहती किन्तु दूसरी हो जाती है। अर्थात् वस्तु का प्रत्येक क्षण में स्वाभाविक नाश होता रहता है। इस मत में मान्य है कि जो सत् है वे सभी क्षणिक है अर्थात् नित्य नहीं है अथवा जो सत् है वह सभी प्रकारों से एक दूसरे से विलक्षण हैं। अर्थात् कोई भी किसी के सादृश्य नहीं है। उनकी मान्यतानुसार नित्य वस्तु में अर्थक्रिया हो ही नहीं सकती, क्योंकि नित्य वस्तु न तो युगपद् अर्थक्रिया करती है और न क्रम से। अतः पर्यायार्थिकनय की एकान्त मान्यता वाला बौद्धदर्शन कहा गया है। यद्यपि वैशेषिक दर्शन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों नयों की मान्यता वाला है, किन्तु वह किसी तत्व को नित्य और किसी तत्व को अनित्य मानता है। परन्तु जो सर्वथा नित्य और सर्वथा अनित्य मानते हैं वह भी युक्तियुक्त संभव नहीं है। अतः बौद्ध और वैशेषिक सांख्यों के सदवाद पक्ष में जो दोष बताते हैं वे सब सत्य है। इसी प्रकार सांख्य लोग बौद्ध तथा वैशेषिक के असवाद में जो दोष लगाते हैं वे भी सच्चे हैं। यदि इन सभी दर्शनों के भिन्न-भिन्न मतों को एकमत किया जाए तो सभी में पारस्परिक सह-अस्तित्व से जैन दर्शन में मान्य कथंचित् स्याद्वाद के प्रयोग से सभी मान्यताएँ सत्य सिद्ध होगी क्योंकि तब सह-अस्तित्व से सभी मत परस्पर निरपेक्ष न होकर सापेक्ष होंगे और सत् वस्तु स्वरूप का निरूपण करने में समर्थ होंगे क्योंकि प्रत्येक द्रव्य में त्रिकाल गुण-धर्म शक्ति विद्यमान रहती है। अत: वह द्रव्य की अपेक्षा नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है। कहा भी है :
दव्ववित्तव्वं सामण्णं पज्जवस्स य विसेसो।
एए समोवणीया विभज्जवायं विसेसेंति॥२५ अर्थात् द्रव्यार्थिक नय की मान्यता से सामान्य ही वास्तविक है तथा पर्यायार्थिक नय की मान्यता से केवल विशेष ही वास्तविक है। परन्त इन