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अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015
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सहभावी पर्याय (गुण) है । यथार्थ में गुण के विकार को पर्याय कहा है। जो पलटता है वह गुण है और जो प्रकट होती है, वह अवस्था पर्याय है। अपने इस विवेचन से आचार्य ने द्रव्य-गुण व पर्याय के सह-अस्तित्व की पुष्टी की है।
उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य में सह-अस्तित्व
सामान्यतः अपनी जाति का त्याग किये बिना नवीन पर्याय की प्राप्ति उत्पाद है। पूर्व पर्याय का त्याग है वह व्यय है और अनादि पारिणामिक स्वभाव रूप अन्वय का बना रहना ध्रौव्य है। 20 प्रत्येक द्रव्य में जिस काल द्रव्य की पूर्व अवस्था का नाश होता है उसी समय उसकी नई अवस्था उत्पन्न होती है, फिर भी उसका त्रैकालिक स्वभाव (अन्वय) रूप बना रहता है। आचार्य सिद्धसेन कहते हैं
दव्वं पज्जवविडयं दव्वविउत्ता य पज्जवा णत्थि । उप्पायइिभंगा हंदि दवियलक्खणं एवं ।।"
द्रव्य का स्वरूप नित्यानित्यात्मक है। कोई द्रव्य नित्य धौव्यऋ तथा कोई द्रव्य अनित्य ( उत्पाद व्यय) मात्र नहीं है। पर्यायवान् द्रव्य ही उत्पत्ति, स्थिति और विनाशशील है। इसलिए उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त द्रव्य का लक्षण कहा गया है। उत्पाद स्थिति और व्यय ये तीनों संयुक्त रूप से रहते हैं। एक के बिना दूसरे का सद्भाव नहीं है। अतः ये भिन्न-भिन्न द्रव्य के लक्षण नहीं कहे गये हैं। उत्पाद - व्यय और ध्रौव्य में सदैव सहअस्तित्वपना रहता है और भी कहा है
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एगसमयम्मि एगदवियस्स बहुया वि होंति उप्पाया। उप्पायसमा विगमा ठिईड उस्सग्गओ णियमा ॥ १
अर्थात् एक द्रव्य में एक समय में अनेक उत्पाद भी होते हैं। उसमें विनाश भी उत्पाद जितने होते हैं तथा सामान्यतः स्थितियाँ भी होती है। अगली गाथा में इसे उदाहरण से स्पष्ट किया है कि एक संसारी जीव के जब वह किसी विवक्षित गति में संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याय में उत्पन्न होता है।
तब उसके एक ही समय में मन, वचन, शरीर आदि होते हैं। उसी समय में उसके देह रूप में अनेक पुद्गल परमाणु, अनेक मनोवर्गणाएँ, अनेक