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अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015
करती है। कषायों के उपशमन के लिए व्यक्तिगत प्रयास और जागरूकता ही वे साधन हैं जो एक अहिंसक समाज की संरचना में सहायता कर सकते हैं।
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गांधी ने लिखा था- "जैन धर्म के अतिरिक्त दुनिया में ऐसा कोई दूसरा धर्म नहीं है, जिसने अहिंसा की इतनी गहरी और व्यवस्थित व्याख्या जीवन में अनुप्रयोग के साथ की हो।' जैन दर्शन का केन्द्रिय सिद्धान्त अहिंसा है, गांधी दर्शन भी इसी पर आधारित है। गांधी ने एक राजनैतिक सक्रियतावाद का सिद्धान्त विकसित किया जिसे 'सत्याग्रह' कहा जाता है, पूर्णतः सत्य और अहिंसा पर ही आधारित है। सत्याग्रह को " असहयोग" और " निष्क्रिय प्रतिरोध" के रूप में भी अनुदित किया गया। गांधी ने कहा'सत्याग्रह निश्चित रूप से सत्यवादियों का हथियार है। एक सत्याग्रही अहिंसा का कठोरता से पालन करने की प्रतिज्ञा करता है .... । ' '
सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचे में गांधी अहिंसा की अपनी समझ में हिंसा के रूपों की चर्चा करते हैं। वे हिंसा के दो रूप स्वीकारते हैं- प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हिंसा । प्रत्यक्ष हिंसा शारीरिक, दृश्य और कर्ता केन्द्रित है जिसका परिणाम शारीरिक चोट, मृत्यु एवं अंतिम परिणति के रूप में युद्ध है। हिंसा का दूसरा रूप अप्रत्यक्ष है यह सहजतया दृश्यमान नहीं है। अप्रत्यक्ष हिंसा को संरचनात्मक हिंसा भी कहा जाता है। यह व्यवस्था पर आधारित होती है। सामान्यतः सामाजिक-आर्थिक जीवन में किसी न किसी रूप में यह विद्यमान रहती है। गांधी की विशिष्टता इसी में है कि उनके संवेदनशील मस्तिष्क ने हिंसा के उस सूक्ष्म स्वरूप को भली तरह समझा हो सहज रूप दृष्टव्य नहीं किन्तु वह समाज में विभिन्न प्रकार के शोषण के रूप
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में व्यापक रूप से विद्यमान है। गांधी ने पुरजोर इस बात को स्वीकार किया कि वर्तमान सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचे में शोषण ही हिंसा का मूल कारण है। गांधी ने समाज में व्याप्त शोषण के विभिन्न प्रकारों और साधनों की व्याख्या की, जैसे अधि कार्यभार कार्य की अमानवीय दशाएं, न्यूनतम मजदूरी नहीं दिया जाना, मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति (जैसे- भोजन, आवास, कपड़ा, स्वच्छ पानी, पर्यावरण, शिक्षा, चिकित्सकीय सुविधा ) का अभाव, काम करने के अवसरों का अभाव, बाल श्रम, लैंगिक अन्याय, मानवीय अधिकारों का हनन आदि। शोषण के ये सभी रूप संरचनात्मक हिंसा के व्यापक रूप हैं। इसलिए जब गांधी अहिंसक विश्व व्यवस्था की
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