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अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015
गांधी और जैनदर्शन
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प्रो. बच्छराज दूगढ़
अहिंसा, जैन दर्शन और गांधी परस्पर कुछ अर्थों में समान दृष्टिगोचर होते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि ये तीनों परस्पर समानान्तर अर्थ ही नहीं रखते अपितु अहिंसा, जैनदर्शन और गांधी कई अर्थों में एक-दूसरे के बिना अपूर्ण हैं।
जैन दर्शन अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त के मूल आधारों पर आधारित है,' वहीं गांधी दर्शन के मूलाधार स्वधर्म, स्वदेशी व स्वराज हैं।” इस लेखन में यह प्रयास किया गया है कि जैन दर्शन के प्राचीन सिद्धान्तों को गांधी द्वारा जिन नवीन रूपों में अपनाया गया, उन्हें वैश्विक परिदृश्य में अच्छी तरह से समझा जा सके। जैनधर्म के विभिन्न सिद्धान्तों का सामाजिक, सांस्कृतिक व आर्थिक आधार यह स्पष्ट करेगा कि गांधी पर जैन दर्शन का प्रभाव था। यह भी कहा जा सकता है कि गांधी ने जैनदर्शन/ धर्म के कतिपय सिद्धान्तों की सैद्धान्तिक और व्यावहारिक स्तर पर मानवीय और पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान के रूप में व्याख्या की। जैनधर्म, गांधी और अहिंसा :
जैनधर्म में अहिंसा को बहुत सूक्ष्मता से विश्लेषित किया गया है। यहाँ अहिंसा का अर्थ केवल 'नहीं मारने' तक ही सीमित नहीं है। जैन दर्शन में मन, वचन और शरीर से किसी भी प्रकार का कष्ट न पहुंचाने पर बल दिया गया है।' आचारांगसूत्र में कहा गया है- अहिंसक व्यक्ति न ही प्राणियों की हत्या करता है, न करवाता है और न ही हत्या करवाने की अनुमोदना करता है।' अहिंसा पूर्ण जागरूकता ही अवस्था है।' अहिंसा की यह समग्र व्याख्या वैश्विक सामंजस्य की व्याख्या करती है जिसमें मनुष्य और प्रकृति सम्मिलित है। मनुष्य के लिए जहाँ अहिंसा का सम्बन्ध प्रवृत्ति और अभिप्राय से है वहीं प्रकृति के लिए अहिंसा प्राणीमात्र के प्रति सम्मान है।
सामाजिक-सांस्कृतिक रूप में अहिंसा का तात्पर्य उस व्यवहार से है जो सभी प्रकार के शोषण से मुक्त हो । किसी भी प्रकार का शोषण, चाहे वह स्थूल हो या सूक्ष्म, क्रोध, मान, माया और लोभ की वृत्तियों द्वारा ही प्रेरित होता है।' समाज में अशांति के मूल में इन्हीं कषायों की उपस्थिति काम