________________
अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015
कर्म और लेश्या शाश्वत भाव है। लेश्या कर्मबन्ध का कारण भी है और निर्जरा का भी। लेश्या का लक्षण -
"लिश्यते-श्लिष्यते कर्मणा सह आत्मा आनयेति लेश्या"
लेश्या न कषाय है और न योग अपितु कषायानुविद्ध प्रवृत्ति ही कषाय है।
बालचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री ने जैनलक्षणावली भाग-3 में लेश्या पर उपलब्ध- लक्षणों का संग्रह प्रस्तुत किया है। धवला के अनुसार जिसके द्वारा प्राणी कर्म से संश्लिष्ट होता है उसका नाम लेश्या है। कषाणादि द्रव्य की सहायता से जो जीव का परिणाम होता है उसे लेश्या कहते हैं।'
अभिधान राजेन्द्र कोश के अनुसार जो आत्मा को कर्मों से लिप्त करती है, जिसके द्वारा आत्मा कर्मों से लिप्त होती है या बन्धन में आती है वह लेश्या है। जैनाचार्यों ने कर्माश्लेश के कारण शुभाशुभ कारणभूत परिणामों को लेश्या कहा है।
गोम्मटसार एवं पंचसंग्रहप्राकृत के अनुसार जिस प्रकार आमपिष्ट से मिश्रित गेरु मिट्टी के लेप द्वारा दीवाल लीपी या रंगी जाती है उसी प्रकार शुभ और अशुभ भावरूप लेप के द्वारा जो आत्मा को परिणाम लिप्त किया जाता है, उसी को लेश्या कहते हैं।
लेश्याकोश में पृ. 3 पर ससन्दर्भ लेश्या के 13 अर्थ दिए हैं- 1. आत्मा का परिणाम विशेष, 2. आत्म परिणाम निमित्तभूत कष्टक्षणादि द्रव्य विष्ठोज़, 3 अध्यवसाय, 4. अन्त:करणवृत्ति, 5. तेज, 6. दीप्ति, 7. ज्योति-प्रकाश-उजियाला', 8. किरण, 9. मण्डलबिम्ब, 10. देह-सौन्दर्य, 11. ज्वाला, 12. सुख 13. वर्ण। लेश्या के भेद -
समाज में एक वर्ग वह है जो शुभ की ओर उन्मुख है और दूसरा वर्ग वह है जो अशुभ की ओर उन्मुख हैं इस नैतिक गुणात्मक अन्तर के आधार पर दो प्रकार बनते हैं- 1. प्रशस्त, नैतिक, धार्मिक, शुभ, शुक्लपक्षी, विशुद्ध, असंक्लिष्ट और दूसरा है अप्रशस्त, अनैतिक, अधार्मिक, अशुभ, कृष्णपक्षी, अविशुद्ध, संक्लिष्ट। जैनाचार्यों ने इन दो गुणात्मक प्रकारों को तीन-तीन (उत्तम-मध्यम-जघन्य) मात्रत्मक अन्तरों के आधार पर षड्विध वर्गीकरण किया।