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अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015
जैनसाहित्य में लेश्या-विमर्श
- डॉ. श्रीमती राका जैन
संसारी प्राणी की बहिर्मुखी दृष्टि अन्तरोन्मुखी हो सके, वह सुपथ का पथिक बन सके इसलिए आवश्यक है कि लेश्या की भावाभिव्यंजना को समझे और जीवन में उतारे जिसके लिए लेश्या-सन्दर्भो को जानना आवश्यक है।
विश्व के किसी भी चिंतन में आत्मभाव को लेकर इतनी सक्षमता से, गहराई से अध्ययन नहीं किया गया जितना जैनदर्शन में लेश्या के माध्यम से किया गया है। यह जैनदर्शन का मौलिक शब्द है। संसारी जीवों के भावों/परिणामों को लेश्या कहते है। इतर दर्शनकारों ने इसे 'चित्तवृत्ति' कहा हैं जिसके द्वारा जीव अपनी आत्मा को कर्म-स्कन्ध- पुण्य पाप से लिप्त करे वह लेश्या है। यथा
“लिंपइ अप्पी कीरइ, एदीय णियअपुण्णापुण्णं च।
जीवोत्ति होदि लेस्सा, लेस्सागुणजाणयक्खादा॥"
जीव अच्छे या बुरे विचारों के अनुरूप ही क्रियाएं करता है और उन्हीं से अच्छे-बुरे कर्मबन्ध होते हैं जीव जितनी क्रियाएं बाहर से करता नजर नहीं आता, उतनी चिंतन या विचारों से करता है। जैनदर्शन ने इन्हीं आत्मभावों को 'रंगदर्शन' अर्थात् 'कलर फिलोसफी' में व्यक्त करते हुए जीव की दुष्टतम, दुष्टतर और दुष्ट प्रवृत्तियों को कृष्ण, नील, कापोत अर्थात् अशुभ/अप्रशस्त लेश्याओं के अन्तर्गत रखा जबकि ठीक, अच्छा, उत्तम को पीत, पद्म और शुक्ल अर्थात् शुभ/प्रशस्त लेश्याओं के अन्तर्गत रखा। एक में दुष्टता, पर पीड़ा, धोखा, झूठ, हिंसा के भावों की प्रबलता है तो दूसरे में प्रेम, क्षमा, करुणा, दया और परीषहजयी बनकर मोक्ष प्राप्ति तक के भाव हैं।
जैनदर्शन ने एक ऐसा थर्मामीटर दिया है जिसे वे स्वयं अपने राग-द्वेष के बुखार को माप सके और शुभ लेश्या रूपी औषधि-योजना करके अपनी आत्मा को कर्मरोग से मुक्त कर सके।'