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________________ 10 अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 यह कर्म आत्मा के शुद्ध स्वरूप वीतराग भाव को विकृत करता है, उसे प्रकट नहीं होने देता है। इसके कारण ही आत्मा राग-द्वेष आदि विकारों से ग्रस्त होकर स्वस्वरूप में रमण नहीं कर पाता है। इस कर्म की समानता मदिरापान से इसलिए की गई है क्योंकि जैसे मदिरा पान करने से मनुष्य पराधीन हो जाता है, उसे अपनी भी प्रतीति नहीं रहती है तथा वह हिताहित को नहीं समझ पाता है, वैसे ही मोहनीय कर्म के उदय से जीव तत्त्व का सच्चा श्रद्धान नहीं कर पाता है। कहा भी गया है 'जह मज्जपाणमूढो लोए पुरिसो परव्वसो होइ। तह मोहेण विमूढो जीवा उ परव्वसो होइ॥" मोहनीय कर्म दो प्रकार का कहा गया है- दर्शन मोहनीय और चारित्रमोहनीय। जो आत्मा के तत्त्वार्थश्रद्धान रूप आत्मगुण का घात करता है उसे दर्शनमोहनीय कहते हैं और जो चारित्र गुण का घात करता है उसे चारित्रमोहनीय कहते हैं। ___ दर्शनमोहनीय के प्रसंग में दर्शन का अर्थ तत्त्वार्थश्रद्धान रूप आत्मगुण है। इस तत्त्वार्थश्रद्धान को ही सम्यग्दर्शन कहा जाता है।' पञ्चाध्यायी में दर्शनमोहनीय के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है 'यथा मद्यादिपानस्य पाकाद् बुद्धिर्विमुह्यति। श्वेतं शंखादि यद्वस्तु पीतं पश्यति विभ्रमात्॥ तथा दर्शनमोहस्य कर्मणस्तूदयादिह। अपि यावदनात्मीयमात्मीयं मनुते कुदृक्॥१० अर्थात् जिस प्रकार मदिरा आदि के पीने के परिणाम से बुद्धि मूर्च्छित हो जाती है तथा वह सफेद वर्ण की शंख आदि वस्तुओं को विभ्रमवश पीला देखता है, उसी प्रकार दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से आत्मा का विवेक समाप्त हो जाने से मिथ्यादृष्टि अनात्मीय को आत्मीय समझने लगता है। ___ जो कर्म तत्त्वार्थश्रद्धान रूप दर्शन को मोहित करता है, उसे दर्शनमोह या दर्शनमोहनीय कर्म कहते हैं। दर्शनमोहनीय कर्म का स्वभाव तत्त्वार्थ का अश्रद्धान है। जयसेनाचार्य ने लिखा है कि 'दर्शनमोहोदये सति निश्चयशुद्धात्मरुचिरहितस्य व्यवहाररत्नत्रय तत्त्वार्थरुचिरहितस्य वा योऽसौ विपरीताभिनिवेशपरिणामः स दर्शनमोहः।११
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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