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________________ अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 को प्राप्त हो जाते हैं, तो उन पुद्गलों को कर्म कहा जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा "जीवपरिणामहेदुं कम्मत्तं पुग्गला परिणमंति। पुग्गलकम्मणिमित्तं तहेव जीवो वि परिणमइ'॥ अर्थात् जीव के परिणाम के निमित्त से पुद्गल कर्म रूप में परिणमित हो जाते हैं तथा जीव भी पुद्गल कर्म के निमित्त से परिणमन करता है। कुन्दकुन्दाचार्य के इस कथन में जीव के परिणाम और पुद्गल के परिणाम को परस्पर निमित्त नैमित्तिक कहा गया है। प्रकृति की अपेक्षा कर्म आठ प्रकार हैं- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय. आय. नाम. गोत्र और अन्तराय। इन अष्टविध कर्मों में ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय ये चार कर्म घातिया कहलाते हैं क्योंकि ये जीव के ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य इन अनुजीवी गुणों का घातकर इन्हें प्रकट नहीं होने देते हैं। वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ये चार कर्म अघाातिया हैं। ये जीव के अनुजीवी गुणों का घात न करके अभाव रूप प्रतिजीवी गुणों को घातने में निमित्त बनते हैं। इनमें मोहनीय कर्म ही नवीन कर्म-बन्ध कराने में कारण बनता है। ___ मोहनीय का निर्वचन करते हुए श्री सिद्धसेन गणी ने तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति में 'मोहयति मोहनं मुह्यतेऽनेनेति वा मोहनीयम्' कहकर जो मोहित करता है, उसे मोहनीय कहा है। अभिप्राय यह है कि जो कर्म मिथ्यात्व आदि रूप होकर प्राणी को मोहित करता है, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। जो पुद्गल द्रव्य स्वरूप कर्म जीव को विमूढ़ (कर्तव्याकर्तव्यशून्य) बना देता है, उसे मोहनीय कहते हैं। जो प्राणियों को सत्-असत् के विवेक से रहित कर देता है, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। द्रव्यसंग्रह की टीका में मोहनीय कर्म की उपमा मद्य से देते हुए कहा गया है कि- “मद्यपानवत् हेयोपादेयविचारविकला। अर्थात मद्यपान के समान हेय और उपादेय के ज्ञान का न होने देना मोहनीय कर्म की प्रकृति है। ___ मोहनीय कर्म आठों कर्मों में सबसे शक्तिशाली कर्म है, इसे राजा के समान तथा शेष सात कर्मों को प्रजा के समान माना गया है। विनयचन्द ने चौबीसी में कहा है 'अष्टकर्मनो राजवी हो मोह प्रथम क्षय कीन।'
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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