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________________ अनेकान्त 68/3, जुलाई-सितम्बर, 2015 संपादकीय दर्शनमोहनीय कर्म और उसके आस्रव-बन्ध की मीमांसा -- डॉ. जयकुमार जैन भारतीय दर्शन-जगत् में कर्मवाद का वैशिष्ट्य सर्वविदित है। क्योंकि कर्म के रहस्य को जाने बिना न तो अध्यात्मवाद को समझा जा सकता है और न पुनर्जन्म एवं मुक्ति की अवधारणा का कोई प्रयोजन रहता है। डॉ. हजारीप्रसाद का कहना है कि कर्मफल का सिद्धान्त भारतवर्ष की अपनी विशेषता है। पुनर्जन्म का सिद्धान्त खोजने का प्रयत्न अन्यान्य देशों के मनीषियों में भी पाया जा सकता है, परन्तु इस कर्मफल का सिद्धान्त और कहीं भी नहीं मिलता।' सुप्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान् कीथ ने 1909 ई. में रॉयल एशियाटिक सोसायटी की पत्रिका में प्रकाशित अपने आलेख में लिखा है कि 'भारतीयों में कर्मबन्ध का सिद्धान्त निश्चय ही अद्वितीय है। संसार की समस्त जातियों से उन्हें यह सिद्धान्त अलग कर देता है। जो कोई भी भारतीय धर्म और साहित्य को जानना चाहता है, वह उक्त सिद्धान्त को जाने बिना अग्रसर नहीं हो सकता। - जैन दार्शनिक, जीव को बन्धन में डालने वाले जिस तत्त्व को कर्म कहते हैं, किञ्चित स्वरूप भेद होने पर भी उसे वेदान्त अविद्या या माया, बौद्ध वासना, सांख्य-योग आशय एवं क्लेश, न्याय-वैशेषिक धर्माधर्म, संस्कार एवं अदृष्ट और मीमांसक अपूर्व कहते हैं। जैन मान्यता के अनुसार जिनके द्वारा जीव को परतन्त्र किया जाता है अथवा जो जीव को परतन्त्र करते हैं, उसे कर्म कहा जाता है। अथवा जीव के द्वारा मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से जो किया जाता है, वह कर्म है। आप्तमीमांसा की वसुनन्दी सैद्धान्तिक चक्रवर्ती द्वारा विरचित पदवृत्ति में कहा गया है 'कर्म मिथ्यात्वासंयमकषाययोगकारणसंचितपदगलप्रचयः। अर्थात मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योग के कारण संचित पुद्गल प्रचय को कर्म कहते हैं। तात्पर्य यह है कि लोक में जो कर्मरूप परिणत होने योग्य नियत पुद्गल हैं, वे जब जीव के मिथ्यात्व आदि परिणाम के अनुसार बन्ध
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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