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________________ अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 19 अनादिनिधनता से है, क्योंकि अनादिनिधन पदार्थ अन्य साधन की अपेक्षा नहीं रखता। (प्रवचनसार, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापनाधिकार, गाथा ९८, अमृतचन्द्राचार्यत्त्त तत्त्वप्रदीपिका टीका) ८. प्रवचनसार, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापनाधिकार, गाथा १००, अमृतचन्द्राचार्यत्त्त तत्त्वप्रदीपिका टीका (श्री कुन्दकुन्द कहान दिगम्बर जैन तीर्थ सुरक्षा ट्रस्ट, जयपुर, पंचमावृत्ति, १९८५), देखिये पृ० १९९ पर फुटनोट में दिया गया संशोधित पाठ। ९. (स्वजात्यपरित्यागेनावस्थितिरन्वयः) अर्थात् अपनी जाति को न छोड़ते हुए उसी रूप से अवस्थित रहना अन्वय है। (राजवार्तिक, अ. ५, सू० २, वार्तिक १) १०. सामान्य, द्रव्य, अन्वय और वस्तु, ये सब अविशेषों रूप से एकार्थवाचक हैं। (देखिये पंचाध्यायी, अध्याय १, श्लोक १४३) ११. अपरित्यक्तस्वभावेनोत्पादव्ययध्रुवत्वसम्बद्धम्। गुणवच्च सपर्यायं यत्तद्रव्यमिति ब्रुवन्ति।। (प्रवचनसार, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापनाधिकार, गाथा ९५, संस्कृत छाया) १२. समयसार पर दिये गए अपने प्रवचनों में, श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी ने गाथा १०३ एवं गाथाचतुष्क ३०८-११ के बीच विषयसाम्य का स्पष्ट रूप से उल्लेख किया है; देखिये सन्दर्भ (ग) १३. Sanskrit-English Dictionary, Williams (Motilal Banarsidass, Pg. 319. १४. संस्कृत-हिन्दी काश, वा. शि० आप्टे (मोतीलाल बनारसीदास,), पृ० ३०९ १५. वही : Ref. 13. १६. सन्दर्भ १४, पृ. ३१० १७. पंचास्तिकाय, गाथा ९, १८. परमाध्यात्म-तरंगिणी : समयसार-कलश पर शुभचन्द्र भन्नरक की टीका; अनुवाद : पं० कमलकुमार शास्त्री (वीरसेवामन्दिर प्रकाशन, दिल्ली, १९९०), पृ. २ १९. देखिये : सन्दर्भ १३ व १४ २०. इसी प्रकार के सन्दर्भ में, प्रवचनसार, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापनाधिकार, गाथा ९९ की तत्त्वप्रदीपिका २१. आप्तमीमांसा में स्वामी समन्तभद्र कहते हैं : द्रव्यपर्याययोरैक्यं तयोरव्यतिरेकतः। परिणामविठ्ठाँच्च शक्तिमच्छक्तिभावतः।।७१।। संज्ञासंख्याविशेषाच्च स्वलक्षणविशेषातः। प्रयोजनादिभेदाच्च तन्नानात्वं न सर्वथा।।७२।। २२. क्रमण अथवा उल्लंघन, मूलतः गति का ही एक प्रकार है। २३. आचार्य अमृतचन्द्र की स्वतन्त्र रचना ‘लघुतत्त्वस्फोट', अनुवादक-सम्पादक : डॉ० पन्नालाल जैन साहित्याचार्य श्री गणेशवर्णी दि० जैन संस्थान, वाराणसी, १९८१; सम्पादकीय, पृ० ७) २४. तत्त्वार्थसार, तृतीयाधिकार, श्लोक ६-७ २५. सर्वार्थसिद्धि में आचार्य पूज्यपाद के ये वचन भी द्रष्टव्य हैं : (चेतनस्याचेतनस्य वा द्रव्यस्य स्वां जातिमजहत उभयनिमिडावशाद् भावान्तरावाप्तिरुत्पादनमुत्पादः मृतपिण्डस्य घटपर्यायवत्। (५/३०) सुदर्शन-निलय, १३- बी.आर ब्लाक, दिलशाद गार्डन, जी. टी. रोड, दिल्ली ११० ०९५
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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