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________________ 18 अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 पर ईमानदारीपूर्वक ऊहापोह किया गया होता तो सम्भवतः इस विवाद का जन्म ही न होता। तो भी, न्यायोचित होगा कि उक्त कल्पना के जनक को निष्पक्षभाव से धन्यवाद दिया जाए, क्योंकि किसी मुद्दे के विवादग्रस्त होने पर ही वह विचारणा के केन्द्रबिन्दु (focus) पर आता है, और बहुधा देखा गया है कि मुद्दे का फ़ोकस पर आना उसका हल खोजे जाने में एक निमित्त हो जाता है। सन्दर्भ-सूची : १. (क) आत्मख्याति-समन्वित समयाभतिँ, ढूँढारी हिन्दी वचनिका : पंञ्च जयचन्द छाबड़ा (श्री मुसद्दीलाल जैन चैरिटेबल ट्रस्ट, दरियागंज, नई दिल्ली, १९८८), पृ. ४६३-६५ (ख) आत्मख्याति एवं तात्पर्यवृत्ति-समन्वित समयसार, पंञ्च जयचन्द छाबड़ा की वचनिका के खड़ी बोली रूपान्तर सहित संशोधित संस्करण (अहिंसा मन्दिर प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, १९५९); पृ. ३९६-९८ (ग) समयसार, प्रवचन- सहित; सम्पादन : डॉ. पन्नालाल साहित्याचार्य (श्री गणेश वर्णी दि. जैन संस्थान, वाराणसी, तृतीय सं०, २००२), पृ. ३२२-२३ (घ) आत्मख्याति, तात्पर्यवृत्ति एवं स्वोपज्ञ - तत्त्वप्रबोधिनी टीकात्रय - समन्वित समयसार, टीका-अनुवाद-सम्पादन : पं. मोतीचन्द्र कोठारी (श्री ऋषभनाथ दि० जैन ग्रन्थमाला, फलटण, १९६९); खण्ड ४, पृ. १९९९-१२०३ २. (क) आत्मख्याति - गुजराती व्याख्या का हिन्दी रूपान्तर : पं० परमेष्ठीदास न्यायतीर्थ, प्रकाशकटोडरमल स्मारक, पेज ४९३-९५ (ख) क्रमबद्धपर्याय, डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल (ग) जैनतत्त्वमीमांसा, पं० फूलचन्द्र शास्त्री (सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द्र शास्त्री फाउंडेशन, रुड़की, तृतीय संस्करण, १९९६); पृ० २५८-५९ ३. सर्वविदित है कि समयसार पर 'आत्मख्याति', प्रवचनसार पर 'तत्त्वप्रदीपिका', पंचास्तिकाय पर ‘समयव्याख्या’= ये तीन टीकाग्रन्थ तथा ‘तत्त्वार्थसार', 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' और ‘लघुतत्त्वस्फोट’ = ये तीन स्वतन्त्र कृतियां; इस प्रकार कुल छह रचनाएं आचार्य अमृतचन्द्र की है। ४. समयसार, आत्मख्याति टीका, कलश संख्या ५१ ५. आलापपद्धति, सूत्र १०६; हिन्दी अनुवाद एवं टीका : पं० रतनचन्द जैन मुख्तार (श्री शान्तिवीर दि० जैन संस्थान, श्रीमहावीरजी, १९७०); पृ० १४९ ६. ययत्तु द्रव्यैरारभ्यते न तद्द्रव्यान्तरं कादाचित्कत्वात् स पर्यायः । द्वणुकादिवन्मनुष्यादिवच्च। द्रव्यं पुनरनवधि त्रिसमयावस्थायि न तथा स्यात् । (प्रवचनसार, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापनाधिकार, गाथा ९८, अमृतचन्द्राचार्यत्त तत्त्वप्रदीपिका टीका) ७. ह्नन खलु द्रव्यैर्द्रव्यान्तराणामारम्भः सर्वद्रव्याणां स्वभावसिद्धत्वात्। स्वभावसिद्धत्वं तु तेषामनादिनिधनत्वात्। अनादिनिधनं हि न साधनान्तरमपेक्षते। अर्थात् द्रव्यों से द्रव्यान्तरों की उत्पत्ति वास्तव में नहीं होती, क्योंकि सभी द्रव्यों के स्वभावसिद्धपना है (सभी द्रव्य, परद्रव्य की अपेक्षा के बिना, अपने स्वभाव से ही सिद्ध हैं); और उनकी स्वभावसिद्धता तो उनकी
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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