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________________ अनेकान्त 68/1, जनवरी - मार्च, 2015 माना है; जिसके हेतु कुछ लोगों को 'क्रमबद्धता' की कल्पना करने का श्रमभार व्यर्थ में ही वहन करना पड़ा है! 17 उपसंहार : अन्त में, किसी भी प्रकार के संशय या सन्देह के निरसन हेतु पुनरावृत्ति दोषों को भी सहन करते हुए, यह दोहराना उचित होगा कि जिनागम के अनुसार (क) द्रव्य से द्रव्यान्तरण, (ख) गुण से गुणान्तरण, तथा (ग) द्रव्यपरिणामों द्वारा द्रव्यस्वभाव का अतिक्रमण, इन तीनों ही घटनाओं की अशक्यता / असंभवता प्रत्येक द्रव्य के मूल स्वभाव में अनादि से ही अन्तर्निहित है । भेदविवक्षा में चाहे द्रव्य / द्रव्यस्वभाव, गुण और पर्याय को कथंचित् भिन्न-भिन्न कहा जाता हो, फिर भी वस्तु के मूल स्वभाव को ग्रहण करने वाले अभेदनय की विवक्षा में तीनों एक रूप से वस्तु की अचलित सीमा अथवा मर्यादा का उल्लंघन या अतिक्रमण करने में असमर्थ हैं। यहाँ पर, द्रव्यस्वभाव के अन्तर्गत ध्रौव्य को, एवं पर्यायों के अन्तर्गत उत्पाद-व्यय को भी शामिल कर लेना चाहिये, जैसा कि ऊपर दिये गए विभिन्न आर्ष आचार्यों के उद्धरणों से सुस्पष्ट है । जब वस्तुस्वरूप ही ऐसा है कि द्रव्य स्वयं तो द्रव्यान्तरण की अशक्यता सुनिश्चित करने में समर्थ है ही, पर्यायें भी उसी सुनिश्चितकारिता से सज्जित है। जिस सामर्थ्य को स्पष्ट रूप से रेखांकित करने के लिये ही आचार्यश्री ने प्रकृत वाक्य के अन्त में 'सर्वद्रव्याणां स्वपरिणामैः सह तादात्म्यात्' कहना ज़रूरी समझा है। तब उन 'समर्थ' परिणामों / पर्यायों को उसी कार्य (द्रव्यान्तरण की अशक्यता) के हेतु ‘क्रमबद्धता' रूपी बैसाखियों की ज़रूरत भला क्यों पड़ने लगी? साफ़ ज़ाहिर है कि कथित ' क्रमबद्धता' चाहे जिस किसी व्यक्ति की भी कल्पना की उपज हो, वहाँ द्रव्यानुयोग के मूल सिद्धान्तों को आत्मसात् करने में कोई चूक ज़रूर हुई है। इस सन्दर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रन्थत्रय के अभ्यासी-अनुभवी महानुभावों का एक कथन ध्यान में आता है कि समयसार के अध्ययन से पहले प्रवचनसार का गंभीर अध्ययन किया जाना आवश्यक है । 'क्रमनियमन का अर्थ क्रमबद्धता है', ऐसी कल्पना अथवा परिकल्पना को पेश किये जाने से पहले, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन अधिकार के प्रारम्भ की दस-बारह गाथाओं के और उन पर तत्त्वप्रदीपिका टीका के भावार्थ को यदि सम्यक्रूपेण हृदयंगम किया गया होता; और उनके आलोक में ‘आचार्य अमृतचन्द्र का अभिप्राय क्या है', यदि इस प्रश्न
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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