SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 16
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 6 अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015 __इसी प्रकार, पंचास्तिकाय, गाथा १० की समयव्याख्या में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं : एकजात्यविरोधिनि क्रमभुवां भावानां सन्ताने... अर्थात् एक जाति की अविरोधी या जात्यन्तर की विरोधी, अथवा द्रव्यान्तरण की विरोधी क्रमवर्ती पर्यायों का प्रवाह, उसमें...। इस प्रकार, हम देखते हैं कि पंचास्तिकाय, प्रवचनसार एवं समयसार = इन परमागमस्वरूप ग्रन्थत्रय पर आचार्य अमृतचन्द्र द्वारा रचित टीकाओं में परस्पर इस विषय पर न केवल पूर्ण संगति है, बल्कि उनकी व्याख्याएं मूलग्रन्थकार आचार्य कुन्दकुन्द एवं भट्ट अकलंकदेव जैसे प्रामाणिक आचार्यों के वचनों के भी पूर्णतः अविरुद्ध हैं; जैसा कि स्वाभाविक रूप से, ऐसे महान् आचार्य से अपेक्षित ही है। फिर भी, पर्यायों की कथित क्रमबद्धता का समर्थक कोई व्यक्ति आचार्यश्री के कुछ वचनों का बिना किसी अन्तर्बाह्य साक्ष्य के यदि ऐसा अर्थ करता है कि जिसके द्वारा उनकी तीनों टीका-कृतियों के बीच ही अर्थ की विसंगति (inconsistency) का प्रसंग पैदा हो जाए, तो उस व्यक्ति के ऐसे प्रयास को मज़बूरन, न केवल ऐसे महान् आचार्य की, बल्कि समस्त जिनवाणी की भी, विराधना करने का दुष्प्रयास ही समझना पड़ेगा। इतने साक्ष्यों को दृष्टिगत करने के बाद भी, यदि किसी तत्त्वजिज्ञासु को अब भी कोई सन्देह रह गया हो, तो उसे आचार्यश्री की स्वतन्त्र रचना तत्त्वार्थसार में ‘परिणाम', 'उत्पाद' व 'व्यय' का निरूपण देखना चाहिये। द्रव्यस्य स्यात्समुत्पादश्चेतनस्येतरस्य च। भावान्तरपरिप्राप्तिः निजां जातिमनुज्झतः।। स्वजातेरविरोधेन द्रव्यस्य द्विविधस्य हि। विगमः पूर्वभावस्य व्यय इत्यभिधीयते।। अर्थ : अपनी जाति का विरोध न करते हुए, वस्तु का जो विकार है उसे परिणाम कहा है। अपनी (चैतन्य या पौद्गलिक आदि) जाति को नहीं छोड़ते हुए, चेतन व अचेतन द्रव्य को जो पर्यायान्तर की प्राप्ति होती है, वह उत्पाद कहलाता है। अपनी जाति का विरोध न करते हुए, चेतन व अचेतन द्रव्य की पूर्व पर्याय का जो नाश है, वह व्यय कहलाता है।५ यहाँ भी आचार्यश्री ने उस विशेषता ('स्वजाति को न छोड़ना' या 'स्वजाति का विरोध न करना') को उत्पाद-व्यय की मूल अवधारणा में निहित
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy