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________________ अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015 77 आविष्कार किये मगर उस तत्व की खोज करने का कभी प्रयास नहीं किया, जिसके कारण मैं अब तक जीवित हूँ। जिसके निकल जाने के बाद आइन्स्टीन आइन्स्टीन नहीं मात्र माटी का पुतला रह जायेगा। सबको जाना पर उस 'एक' से अनजाना रहा। उसकी खोज नहीं कर पाया। सही है; जिसे पाना है- जो होना है- वह तुम्हारे भीतर ही है । संयम से उस होने को प्रगट किया जा सकता है। संयम जीवन की बुनियाद है। लेकिन नियम, व्रत, संयम, चरित्र ये सब प्रवचन की वस्तुएं बन गयी हैं। अब तो इन पर सेमिनार भर आयोजित होने लगे हैं। जीवन से सम्यक् चरित्र कट गया है। इसलिए आज अध्यात्म घुटने टेककर विज्ञान का दास बन गया है। खोटी वृतियों/ कृतियों के कारण उसका ज्ञान चारों खाने चित्त है । चरित्र के नाम पर आदमी छद्म बन गया है। वह मंदिर में आत्म चेतना के सरोवर में तैरता है, परन्तु बाहर निकलते ही शरीर की सेवा में लग जाता है। जो आत्म बोध उसने मंदिर में अर्जित किया था, देहरी पार करते ही संसारार्पण कर देता है। इसलिए चरित्र का फूल मुरझाया हुआ है। इसमें न ताजगी है और न ही सुरभि । जीवन में पूज्यता आती है सम्यक् चरित्र और संयमाचरण से । वीतराग विज्ञान अद्भुत शब्द है। वीतराग एक सिद्धान्त (Theory) दर्शन हो सकता है, परन्तु उसके साथ विज्ञान जुड़ जाने से उसमें क्रियात्मकता/ प्रयोग (Experiment) जुड़ गया जब जीवन में वीतराग भाव झलकने लगे, जैसे दर्पण में प्रतिबिम्ब, तब वह वीतराग विज्ञान बन जाता है। संयम- आचरण से जुड़ा व्यावहारिक तत्व है, जो श्रम/पुरुषार्थ से पाया जाता है। श्रमण वही जो संयम की परिपूर्णता हासिल करे। महावीर की देशना थी कि चारित्र / संयम की पूर्णता बिना निर्वाण सुख नहीं मिल सकता। संयम के अनुशीलन से कर्मों की पराधीनता कट सकती है/ कटती है और आत्मा अपनी मौलिकता में लौटती है। स्वतन्त्रता - मनुष्य अपनी वासना के कारण परतंत्र / पराधीन है। अपनी कामनाओं का गुलाम है। हमारी अनंत इच्छाओं/ अभिलाषाओं के चक्रव्यूह ने आत्मा की स्वतंत्रता को ओझल बना दिया है। वह परतंत्र नहीं होना
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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