SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015 चाहता परन्तु दूसरों का स्वामी बनकर उसे परतंत्र बनाये रखने में रस लेता है। यही उसकी स्वतंत्रता को बाधित किये है। भगवान महावीर ने परतंत्रता की बेड़ी / अदृश्य जंजीरें काटने के लिए पहले मोह को विसर्जित करने की बात कही। मोह दुख का जनक है। जहाँ मोह है वहां परवशता है। मोह कैसे दूर हो। महावीर ने सूत्र कहा:- संसार के प्रति जितना कर्ता और भोक्ता बनोगे कर्मों का बंधन उतना ही जकड़ेगा और मोह के व्यामोह से विरत नहीं हो सकोगे। इसके विपरीत जितना ज्ञाता और दृष्टाभाव अपने अंदर, संसार के प्रति पैदा करोगे उतनी निरासक्ति होगी, अस्पर्श भाव होगा और कर्म बंधन की परवशता से उन्मुक्त होंगे। मनुष्य, शरीर का दास बनकर रह गया। देह सौन्दर्य सौन्दर्य भूल गया। देह/ इन्द्रियाँ - क्षरणशील हैं इसलिए इनका सौंदर्य भी क्षरणधर्मा है। आत्मा अक्षर है, अतः आत्म-सौंदर्य- शाश्वत है। आत्म - जब तक इन्द्रियों की वासना से ऊपर नहीं उठोगे, स्वतंत्रता कोसों दूर खड़ी रहेगी। अतः मौलिकता में लौटने का सूत्र है: आत्म स्वातंत्र्य का अवबोध। वासनायें- हमारी परतंत्रता का ताना बाना बुनती हैं। इस जाल से छुटकार पाये बिना ‘स्वतंत्रता' आकाश कुसुम है। - विश्व की बेहताशा बढ़ रही हिंसा व क्रूरता, अशांति व आतंकवाद, युद्ध व संघर्ष की विभीषिका ने अहिंसा के मसीहा महावीर को अब ज्यादा प्रासंगिक बना दिया है। अहिंसा की मशाल से ही हिंसा का तमस (अंधकार) दूर होगा। विश्व की ज्वलन्त समस्याओं के हल करने के लिए महावीर की अहिंसा, अपरिग्रह और अनेकान्त आज ज्यादा महत्वपूर्ण बन गये हैं। आण्विक-हथियारों की प्रतिस्पर्धात्मक दौड़ में महावीर की देशना, ठहरने का शुभ संकेत दे रही है । कह रही है; रुको और रोको इन आण्विक अस्त्रों के बढ़ते भंडारों को, तभी विश्वशांति की वार्ताएँ सार्थक हो सकती हैं। 78 कत्लखानों के बाहरी अहातों में मूक पशुओं का जमाव देखकर महावीर की अहिंसा बिलखने लगी । एक दर्द भरा प्रश्न इन पशुओं की ओर से महावीर पूछ रहे हैं राजनीति की सत्ता पर बैठे मनुष्य से कि क्या इन्हें जीने का अधिकार नहीं है ? यह प्रश्न आज भी अनुत्तरित है ।
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy