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अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015
75 उन्हें स्वीकार नहीं रहा। उनका दिगम्बरत्व/वीतरागत्व प्रकृति की सच्चाई थी। जैसे प्रकृति में छिपाने को कुछ नहीं है वैसे ही महावीर निरभ्र थे। __ भगवान महावीर की खोज- अनीन्द्रिय-मूलक थी, इन्द्रिय जनित नहीं। इन्द्रियों का संबन्ध बाहर से है, पदार्थों से है और विज्ञान की सारी खोजपदार्थों से जुड़ी है। विज्ञान-शरीर और मन से लेकर भूत तत्वों तक फैला है। जबकि अनीन्द्रिय की खोज वीतराग-विज्ञान पर टिकी है। वह अध्यात्म की यात्रा है। वह आत्मानुसंधान है। वीतराग विज्ञान के हिमालय से समता की पावन गंगा अवतरित होती है। उस गंगा को बुलाने के लिए आत्म-पुरुषार्थ का भागीरथ चाहिए। ___ जीवन-मृत्यु में जय-पराजय में, सुख-दुख में, प्रशंसा और निंदा में समताशील बने रहना, यह वीतराग-विज्ञान का करिश्मा हो सकता है। संसार- सुवर्ण एवं मृतिका को समभाव से कैसे देख सकता है?
समता- जीव की अपनी मौलिकता है, उसकी प्रकृति है, जबकि विषमता उसकी विकृति है। महावीर का दिव्य संदेश विषमता से बचने का रहा। समता की पावन गंगा के दो कूल है। (1) सहिष्णुता (2) सहअस्तित्व दिगम्बरत्व की कल्पना सहिष्णु बने बिना नहीं की जा सकती। आकाश की
ओढ़न और पृथ्वी की बिछावन, आकाश सा हृदय और पृथ्वी सी क्षमा, जब जीवन की परिभाषा बन जाये, तो दिगम्बरत्व की पहचान प्रगट होती
है।
साधना चाहे अणुव्रत पालन की हो या महाव्रत के अनुशीलन की, सहिष्णुता के पांव बिना वह लंगड़ी है। अनुशासन बाहरी हो या भीतरी, सहिष्णुता उसकी प्राथमिक शर्त है। इसके बिना स्वतंत्रता, उच्छृखल है। उपसर्ग- सहिष्णुता के मित्र बन जाते हैं। श्रमण साधना में बाईस परिषह कहे गये। सहिष्णुता की ढाल से परिषहों का आक्रमण झेला जा सकता है।
- समता की फसल में सहिष्णुता पैदा होती है। - विवेक से सहिष्णुता को बल मिलता है और
- सहिष्णुता से सह अस्तित्व की अवधारणा का विकास होता है। सहअस्तित्व
- सह अस्तित्व के गर्भ में अनाग्रह के बीज छिपे होते हैं।