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अनेकान्त 68/1, जनवरी-मार्च, 2015
प्रांगण की सीमा के भीतर गति करने वाली' कहा जाए, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता दोनों रूपक एक ही वस्तुस्वरूप को दर्शाते हैं।
जीव है वह जीवस्वभाव के क्रमण / उल्लंघन के विषय में नियन्त्रित/प्रतिबन्धित, ऐसे अपने परिणामों से उत्पन्न होता हुआ जीव ही है, अजीव/पुद्गल नहीं। इसी प्रकार, अजीव / पुद्गल भी अजीव / पुद्गलस्वभाव के क्रमण/उल्लंघन के विषय में नियन्त्रित/प्रतिबन्धित ऐसे अपने परिणामों से उत्पन्न होता हुआ अजीव / पुद्गल ही है, जीव नहीं; (परिणामों के द्वारा द्रव्यस्वभाव का उल्लंघन नियन्त्रित क्यों है, इस प्रश्न के उत्तरस्वरूप आचार्य प्रकृत वाक्य का समापन इस प्रकार करते हैं :) क्योंकि सभी द्रव्यों का अपने परिणामों के साथ तादात्म्य होता है, जैसे कि स्वर्ण का कंगन आदि अपनी पर्यायों के
साथ। २०-२१
प्रस्तुत भावानुवाद का अन्य समप्रासंगिक कथनों के साथ अविरोध (क)' आत्मख्याति' में पूर्वापर - अविरोध :
‘क्रमनियमन’ का उक्त भावार्थ प्रकृत सन्दर्भ के साथ तो संगत है ही, सम्पूर्ण समयसार में प्रतिपादित विषयवस्तु के साथ भी पूर्वापर - संगति को लिये हुए है; यह एकदम स्पष्ट हो जाता है जब हम कर्ताकर्माधिकार की उपर्युक्त गाथा १०३ पर पुनः ध्यान देते हैं। हम देखते हैं कि इस गाथा का तथा सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार के गाथाचतुष्क ३०८-३११ का सन्दर्भ एक ही है परमार्थतः जीव के पर-कर्तृत्व का निषेध। आचार्य अमृतचन्द्र ने दोनों ही स्थलों पर एक-ही आगम-सम्मत तर्कणाशैली को अपनाते हुए व्याख्या की है। जहाँ, गाथा १०३ की टीका में वे कहते हैं कि द्रव्य और उसके गुण अनादि से वर्तन करते हुए वस्तु की स्वाभाविक, अचलित सीमाओं का उल्लंघन / अतिक्रमण नहीं कर सकते, द्रव्य से द्रव्यान्तररूप और गुण से गुणान्तररूप संक्रमण होना अशक्य है; वहीं गाथा ३०८-३११ की व्याख्या में वे कहते हैं कि वस्तु के परिणाम अनादि से प्रतिक्षण बदलते हुए भी पर्याय से पर्यायान्तरण घटित होते हुए भी वे परिणाम वस्तु की स्वाभाविक, अचलित सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकते। ध्यान देने योग्य है कि 'अतिक्रमण', 'संक्रमण' और 'क्रमनियमन', इन सभी में ‘क्रम' शब्द एक ‘गति’ का ही सूचक है, २ कालापेक्ष उत्तरोत्तरता का सूचक नहीं; अतः प्रकृत में ‘क्रमनियमन' का भावानुवाद है : 'क्रमनियन्त्रण अथवा उल्लंघन/अतिक्रमण की अशक्यता ' । यदि हम पूर्वाग्रह एवं पक्षपात से रहित
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