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________________ अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015 29 तरक्की जिस तरह दुनिया को हासिल होती जाती है। सितम है जिन्दगी उतनी ही मुश्किल होती जाती है ॥ कवि लक्ष्मणदेव ने मिणाहचरिउ में लिखा कि "किं फुल्लई गंध - विवज्जिएण १७ अर्थात् गन्धरहित फूल से क्या (लाभ) ? फूल तो वे हैं जो खुशबू दें, वायु को महकायें, वातावरण को, पर्यावरण को महका दें किन्तु चारों ओर फैली विषाक्त वायु नाक पर रूमाल रखकर चलने के लिए विवश करती है और तब हमें पता चलता है कि हमने उद्यानों, उपवनों को नष्टकर क्या हासिल किया है? हमारे अपभ्रंश के अधिकांश कवि जैनधर्मी रहे हैं अतः उन्हें प्रकृति से विशेष लगाव रहा है। वे अष्टमूलगुण पालन के पक्षधर रहे हैं। विक्रम की 10वीं शती में हुए कवि धनपाल ने अष्टमूलगुणों के विषय में कहा है कि महु मज्जु मंसु पंचुवराइ खज्जंति ण जम्मंतर समाई ॥ १८ अर्थात् मधु, मद्य, मांस और पाँच उदुम्बर फलों को किसी भी जन्म में नहीं खाना चाहिए। 'भावसंग्रह' (गाथा 356) में आचार्य श्री देवसेन ने भी अष्टमूलगुण पालन पर जोर दिया हैमहुमज्जुमंसविरई चाओ पुण उंवराण पंचन्हं । अट्ठेदे मूलगुण हवंति फुड्ड देशविरयम्मि॥१९ इनके मूल में भी जीव जगत् और वनस्पति जगत् के संरक्षण की भावना रही है। जो पर्यावरण संरक्षण के लिए जरूरी है। भगवान् महावीर स्वामी ने कहा था कि जैसा व्यवहार तुम्हें प्रिय नहीं है वैसा तुम भी दूसरों के साथ मत करो। परोपकार भी हमारे लिए इष्ट है। अपभ्रंश के कवि श्री सुप्रभाचार्य ने वैराग्यसार में परोपकार करने की प्रेरणा दी है। प्रकृति परोपकार करती है। वे लिखते हैं कि सुप्पर भइ रे धम्मियहु, खसहु म धम्म णियाणि । जे सूरग्गमि धवल धरि, ते अंधवण मसाण॥ सुप भई मा परिहरहु पर - उवचार ( यार ) चरत्थु । ससि सूर दुहु अंधवणि अणहं कवण थिरत्थु ॥२० अर्थात् हे धार्मिको! निश्चित धर्म से स्खलित न हो । सूर्योदय के
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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