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________________ अनेकान्त 68/2, अप्रैल-जून, 2015 कंकुमछडएं ण रइहि रंगणावइ दक्खालिए-सुहपसंगु॥ विरइयमोत्तिय रंगावलहिजं भूसिउ णं हारावालहि। चिंधेहिं धरिय णं पंचवण्णु चउवण्णजणेण वि अइखण्णु॥१५ अर्थात् वह (राजगृह) नगर मानों कमलसरोवर रूपी नेत्रों से देखता था, पवन द्वारा हिलाये हुए वनों के रूप में नृत्य कर रहा था तथा ललित लतागृहों के द्वारा मानो लुकाछिपी खेलता था। अनेक जिनमन्दिरों के द्वारा उल्लसित हो रहा था। कामदेव के विषम वाणों से घायल होकर मानों अनुरक्त परेवों के स्वर से चीख रहा था। परिखा में भरे हुए जल के द्वारा वह नगर परिधान धारण किये हुए था तथा अपने श्वेत प्रकार रूपी चीर को ओढ़े था। वह अपने गृह शिखरों की चोटियों द्वारा स्वर्ग को छू रहा था और मानों चन्द्र की अमृतधारा को पी रहा था। कुंकुम की छटाओं से जान पड़ता था जैसे वह रति की रंगभूमि हो और वहाँ के सुख-प्रसंगों को दिखला रहा हो। वहाँ जो मोतियों की रंगावलियाँ चल रही थीं, उनसे प्रतीत होता था, जैसे मानों वह हार-पंक्तियों से विभूषित हो। वह अपनी उठी हुई, ध्वजाओं से पंचरंगा और चारों वर्गों के लोगों से अत्यन्त रमणीक हो रहा था। एक हिन्दी लोकगीत में नीम के पेड़ को नहीं काटने की प्रार्थना ससुराल जाती हुई बिटिया करती है। वह कहती है कि निमिया कौ पैड़ो जिन काटियो बाबुल, निमिया में चिरई को बास मोरे लाल॥ चिरई न काऊ दुख देय जु बाबुल, बिटिया चिरइया की नाई मोरे लाल॥ सबरी चिरइयाँ उड़इ जैहें बाबुल, रै जैहे निमिया बिसूर मोरे लाल॥ सबरी बिटिया सासुरे जैहे बाबुल, रै जैहे मइया बिसूर मोरे लाल॥१६ आज हम तरक्की के लिए पेड़ काट रहे हैं और कांक्रीट के जंगल खडा कर रहे हैं। जो हमारी मुश्किलें बढ़ा रहे हैं। एक शायर ने ठीक लिखा है कि
SR No.538068
Book TitleAnekant 2015 Book 68 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2015
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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