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अनेकान्त 67/1 जनवरी-मार्च 2014
‘उदयं जह मच्छाणं गमणाणुग्गहकरं हवदि लोए । तह जीव पोग्गलाणं धम्मं दव्वं विदाणीहि ।। ४२
अर्थात् जिस प्रकार लोक में पानी मछलियों के गमन में अनुग्रह पूर्वक सहायता करता है, उसी प्रकार धर्म द्रव्य जीवों एवं पुद्गलों के गमन करने में अनुग्रहपूर्वक सहायता करता है।
' ण य गच्छदि धम्मत्थी गमणं ण करेदि अण्णदवियस्स । हवदि गदिस य पसरो जीवाणं पोग्गलाणं च ।।४३
अर्थात् धर्मास्तिकाय (धर्म द्रव्य) गमन नहीं करता है और अन्य किसी द्रव्य को भी वह बलात् गमन नहीं कराता है। वह तो जीवों तथा पुद्गलों की गति का उदासीन प्रसारक है। धर्म द्रव्य की जैसी गति में स्थिति है, वैसी ही अधर्म द्रव्य की स्थिति में स्थित है।
वास्तव में धर्म और अधर्म दोनों ही द्रव्यों की लोकव्यवस्था के लिए अत्यन्त महत्ता है। विश्व में धर्म द्रव्य के बिना कोई भी गतिशीलता नहीं बन सकेगी, गमनागमन सर्वथा रुक जायेगा तथा जड़ता एवं स्थिरता व्याप जायेगी। यदि अधर्म द्रव्य न होता तो लोक में जीव एवं पुद्गल चलायमान ही बने रहते तथा स्थायित्व नहीं बन सकता। अतः दोनों की अपनी-अपनी महत्ता असंदिग्ध
है।
आचार्य विद्यानन्दि स्वामी ने धर्म द्रव्य एवं अधर्म द्रव्य में प्रयुक्त धर्म एवं अधर्म शब्दों का निर्वचन करते हुए लिखा है - 'सकृसकलगतिपरिणामिनां सान्निध्याद्धर्मः' सकृत्सगलस्थिति परिणामिनां सान्निध्याद्गति विपर्ययाद धर्मः।” अर्थात् गमन परिणाम वाले संपूर्ण जीव या पुद्गलों के युगपद् सहकारिपने को धारण करने से धर्म कहा गया है तथा स्थिति परिणाम वाले सम्पूर्ण द्रव्यों के एक साथ सान्निध्य को धारण करने के कारण अधर्म द्रव्य कहा गया है। अधर्म द्रव्य धर्म द्रव्य का विपरीत है क्योंकि धर्म द्रव्य गति में कारण है, जबकि अधर्म द्रव्य स्थिति में कारण है।
धर्म एवं अधर्म की एक द्रव्यता :
‘आ आकाशादेकद्रव्याणि ४५ कहकर आचार्य उमास्वामी ने धर्मद्रव्य, अधर्म द्रव्य एवं आकाश द्रव्य को एक-एक कहा है तथा परिशेषन्याय से शेष द्रव्यों को अनेक कहा है। वे धर्म एवं अधर्म द्रव्य की एक होने की सिद्धि करते