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________________ अनेकान्त 67/1, जनवरी-मार्च 2014 पारिभाषिक है। इनका प्रयोग स्वभाव-विभाव या पुण्य-पाप के अर्थ में नहीं हुआ है। अपितु गति में कारणभूत द्रव्य को धर्म और स्थिति में कारणभूत द्रव्य को अधर्म कहा गया है। धर्मद्रव्य स्वयं गति करने वाले जीव एवं पुद्गलों की गति में उदासीन निमित्त है, यह प्रेरक नहीं है । उसी प्रकार अधर्म द्रव्य स्थिति करने वाले जीव एवं पुद्गलों की स्थिति में उदासीन निमित्त है, यह प्रेरक नहीं है। अन्य किसी भी जैनेतर भारतीय दर्शन ने गति एवं स्थिति क्रिया के निमित्त रूप में किसी स्वतंत्र द्रव्य को स्वीकार नहीं किया है। जबकि विज्ञान ईथर और स्पेस नामक पदार्थों को स्वीकार करता है, जो अमूर्तिक, व्यापक, निष्क्रिय और अदृश्य हैं तथा गति एवं स्थिति में आवश्यक माध्यम हैं।८ जैन दर्शन के अनुसार धर्म और अधर्म द्रव्य में नित्यता, अरूपिता एवं अवस्थिता आकाश द्रव्य समान है। जिस प्रकार मछली के गमन में जल साधारण उदासीन निमित्त है, उसी प्रकार जीव एवं पुद्गलों के गमन में धर्म द्रव्य साधारण उदासीन निमित्त है। इसी तरह जिस प्रकार अश्व आदि के ठहरने में भूमि एवं राहगीर के ठहरने में पेड़ की छाया साधारण उदासीन निमित्त है, उसी प्रकार जीव एवं पुद्गलों के ठहरने में अधर्म द्रव्य साधारण उदासीन निमित्त है। जैसे भूमि या वृक्ष की छाया चलने या ठहरने की स्वयं प्रेरणा नहीं देते है ।, उसी प्रकार धर्म एवं अधर्म द्रव्य भी स्वयं चलने या ठहरने की प्रेरणा नहीं देते हैं। भट्ट अकलंक देव ने स्वयं क्रिया में परिणत जीव एवं पुद्गलों को सहायक द्रव्य को धर्म तथा उससे विपरीत अर्थात् स्वयं क्रिया से विरत जीव एवं पुद्गलों की स्थिति में सहायक द्रव्य को अधर्म कहा है- 'स्वयं क्रिया परिणामिनां साचिव्यधानाद्धर्मः। तद्विपरीतोऽधर्मः'। धर्म द्रव्य ही सर्वदा जीव एवं पुद्गलों की गति का तथा अधर्म द्रव्य ही सदा जीव पुद्गलों की स्थिति का कारण है। आचार्य उमास्वामी का कहना है कि स्वाभाविक गति वाला कर्ममुक्त जीव भी धर्म द्रव्य के अभाव के कारण लोकाकाश से आगे अलोकाकाश में गति नहीं कर पाता है।" लोक एवं अलोक का विभाजन भी धर्मादि द्रव्यों (आकाश को छोड़कर) की सत्ता एवं असत्ता के आधार पर ही किया गया है। 8 करते लोक की व्यवस्था में धर्म एवं अधर्म द्रव्य की महत्ता का प्रतिपादन हुए आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं -
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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