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________________ 10 हुए कहते हैं - अनेकान्त 67/1 जनवरी-मार्च 2014 ‘एकद्रव्यमयं धर्मः स्यादधर्मश्च तत्त्वतः। महत्त्वे सत्यमूर्तत्वात्खवत् सिद्धिवादिनाम्।।४६ वास्तव में धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य एक द्रव्य है। क्योंकि ये आकाश के समान महापरिमाण वाले एवं अमूर्त हैं। आकाश को एक मानने वाले नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक, सांख्य आदि को धर्म एवं अधर्म द्रव्यों को एक स्वीकारना चाहिए। धर्म एवं अधर्म द्रव्य का अवगाह : धर्म एवं अधर्म द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश में ठसाठस अन्तराल से रहित होकर विद्यमान है। आचार्य विद्यानन्दि स्वामी लिखते हैं - 'धर्माधर्मौ मतौ कृत्स्नलोकाकाशावगाहिनौ। गच्छत्तिष्ठत्पदार्थानां सर्वेषामुपकारतः।।४७ अर्थात् सम्पूर्ण लोकाकाश में गमन कर रहे पदार्थों का उपकार धर्म द्रव्य से होता है और ठहर रहे पदार्थों का ठहरा देना रूप उपकार अधर्म द्रव्य से होता है। अतः ये दोनों द्रव्य पूरे लोकाकाश में अवगाह किये हुए माने गये हैं। यद्यपि धर्म एवं अधर्म द्रव्य इन्द्रिय ग्राह्य नही है, तथापि इन्द्रियग्राह्य अविनाभावी कार्य हेतु से अतीन्द्रिय कारण का ज्ञान हो जाता है। (४) आकाश द्रव्य : जीव, पुद्गल आदि द्रव्य जिसमें एक साथ अवगाह - स्थान पाते हैं, उस द्रव्य का नाम आकाश है। यह निष्क्रिय है और यह रूप, रस, गन्ध एवं स्पर्श से रहित होने के कारण अमूर्तिक है । अवगाह या अवकाश देना आकाश का असाधारण गुण है। तत्त्वार्थसूत्र में आकाश द्रव्य का वर्णन करते हुए ‘आकाशस्यावगाह’ कहकर अवगाह देना इसका कार्य या उपकार कहा गया है । ४९ सर्वार्थसिद्धि में इसे स्पष्ट करते हुए कहा गया है‘जीवपुद्गलादीनामवगाहिनामवकाशदानमवगाह आकाशस्योपकारो वेदितव्यः ५० अर्थात् अवगाहन करने वाले जीव और पुद्गलों को अवकाश देना आकाश का उपकार जानना चाहिए। आकाश का निर्वचन करते हुए आचार्य विद्यानन्दि स्वामी ने कहा है- 'आकाशन्तेऽस्मिन् द्रव्याणि स्वयं वाकाशते इत्याकाशः " १५१
SR No.538067
Book TitleAnekant 2014 Book 67 Ank 01 to 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaikumar Jain
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year2014
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size1 MB
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